सफलता बहुआयामी विषय है. योग्यता के साथ पद प्रतिष्ठा और निरंतरता से आगे बढते रहना सफलता के लिए अत्यावश्यक बताए गए हैं. इनमें एक और महत्वपूर्ण तथ्य है लोकलाज या कहें सामाजिक भावनाओं का ध्यान रखा जाना है.


एक समय की बात है एक प्रांत में एक प्रतिष्ठित साधु पधारे. वे शहर भ्रमण के दौरान एक धनी परिवार के घर भोजन पर पहुंचे. परिवार ने उनकी यथाशक्ति आवभगत की. सुस्वादु भोजन कराया.


भोजनोपरांत घर के लोगों ने उन्हें मीठा पान ग्रहण करने को कहा. साधु श्रेष्ठ ने वह पान स्वीकारने से मना कर दिया. इस पर परिवार जनों ने पूछा कि हे मुनि श्रेष्ठ! पान लेने में कोई आपत्ति तो नहीं होनी चाहिए. इस पर साधु ने जवाब दिया कि ये श्रेष्ठियों पान निश्चित ही श्रेष्ठ है. आपका आदरभाव भी अति सम्माननीय है लेकिन वे इस पान को ग्रहण नहीं कर सकते. इससे उनके होंठ और मुंह रच जाएंगे. लाल हो जाएंगे. इस से जब आगे भ्रमण पर जाएंगे तो लोगों को उनके रचे हुए मुंह और होठों से अहसजता होगी. क्योंकि वे उनसे ऐसे अपेक्षा नहीं रखते हैं.


विद्वान साधु ने ‘‘यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं ना करणीयं ना करणीयं‘‘ उच्चरित करते हुए कहा कि भले कोई कार्य नीति रीति में सही हो लेकिन वह लोक के विरुद्ध हो तो उसे नहीं किया जाना चाहिए. लोक मान्यताओं का सम्मान किया जाना चाहिए.


इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि सभी को अपनी भूमिक के अनुरूप लोगों के बीच व्यवहार करना चाहिए. संबंधों की मर्यादा के अनुसार आचरण ही सफलता का कुंजी हो सकता है.