Jagannath yatra : जगन्नाथ यात्रा की शुरुआत सबसे पहले बलभद्र यानी बलरामजी की रथ से होती है, जो तालध्वज के लिए निकलता है. इसके बाद सुभद्रा के पद्म रथ की यात्रा शुरू होती है और सबसे अंत में भगवान जगन्नाथ जी के रथ 'नंदी घोष' की सवारी निकलती है. देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालु बड़े-बड़े रस्सों की सहायता से रथ को खींचना शुरू करते हैं. गुंडिचा मां के मंदिर तक जाकर यह रथयात्रा पूरी मानी जाती है. मान्यता है कि मां गुंडिचा जगन्नाथ की मासी हैं, जहां देवताओं के इंजीनियर विश्वकर्मा ने प्रभु जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की प्रतिमा बनाई थी. पुरी जगन्नाथ का मंदिर एकलौता मंदिर है, जहां तीनों भाई बहनों की एक साथ पूजा होती है.


छेरा पहरा 
छेरा पहरा एक रस्म होती है, जो रथयात्रा के सबसे पहले दिन पूरी की जाती है. इसमें पुरी के पंडितों के द्वारा यात्रा मार्ग और प्रभु के रथों को सोने की झाडू से साफ किया जाता है. इसके बाद धार्मिक परंपरा पहांडी आयोजित की जाती है. जिसमें श्रद्धालु बलभद्र, सुभद्रा और भगवान श्रीकृष्ण को गुंडिचा मंदिर तक रथ को खींचकर ले जाते हैं. गुंडिचा भगवान की भक्त भी थीं. मान्यता है कि भक्ति का सम्मान करते हुए भगवान हर साल मिलने जाते हैं. पुरी में जगन्नाथ मंदिर से दो किलोमीटर दूर गुंडिचा मंदिर है, यहां आठ दिन रुकने के बाद नवें दिन वापस आती है.


गुंडिचा मार्जन 
इस परंपरा में रथ यात्रा से एक दिन पहले श्रद्धालुओं की ओर से पूरे गुंडिचा मंदिर को शुद्ध जल से धो कर साफ किया जाता है. जब यात्रा गुंडिचा मंदिर में पहुंचती है तो जगन्नाथजी, सुभद्रा और भगवान बलभद्र का विधिपूर्वक स्नान करवाकर पवित्र वस्त्र पहनाए जाते हैं. यात्रा के पांचवें दिन हेरा पंचमी का होती है, कहा जाता है कि इस मां लक्ष्मी अपना मंदिर छोड़कर यात्रा पर निकले भगवान जगन्नाथजी को खोजने आती हैं. इसके बाद नौवें दिन प्रभु की रथयात्रा वापस भगवान धाम लौट आती है.


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