Mahabharat : महाभारत के अनुसार महाराज शांतनु एक दिन हस्तिनापुर में अपने महल से शिकार करने निकले. गंगा नदी किनारे पहुंचे तो देखा कि सुंदर स्त्री किनारे अकेले बैठी है. जिसे देखते ही वह मोहित हो गए और रथ रुकवाकर स्री से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. वह स्त्री देवी गंगा थी, जिन्हें विवाह के लिए हामी भर तो दी, लेकिन उनकी एक शर्त थी. मगर बिना शर्त सुने ही शांतनु ने हामी भर दी. इस पर गंगा ने कहा, राजन पहले शर्त तो सुन लीजिए. महाराज शर्त है कि विवाह होने के बाद आप मुझसे न तो सवाल पूछेंगे और ना मुझे किसी काम से रोकेंगे, जिस भी दिन आपने ऐसा कर दिया, मैं आपको तत्काल छोड़कर चली जाऊंगी. शांतनु ने शर्त सुनते ही कहा दिया, देवी बिल्कुल ऐसा ही होगा. गंगा से विवाह के बाद शांतनु बेहद खुश थे. जब उन्हें पता चला कि गंगा गर्भवती हैं तो बेहद खुश हुए. 


गंगा ने पुत्र को जन्म दिया तो शांतनु उनसे मिलने गंगा के कक्ष की ओर निकल पड़े. वह रास्ते में ही थे कि दासी ने बताया कि देवी गंगा अपने पुत्र को लेकर जंगल गई हैं, व्याकुल शांतनु गंगा को खोजने निकल पड़े. वह गंगा तट पर पहुंचे तो देखा कि गंगा उनके बेटे को नदी में बहा रही हैं. वह उन्हें रोकने बढे़, तभी गंगा की शर्त याद आ गई तो रुक गए. अपनी आंखों के सामने पुत्र को मरता देखते रहे और भारी मन से वह महल लौट आये. गंगा ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया और इस बार भी गंगा ने उसे गंगा जल में अर्पित कर दिया है. वह अपने तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें पुत्र को आंखों के सामने गंगा नदी में बहता देखते रहे पर कुछ कर नहीं पाते.  मगर जब गंगा आठवें बेटे को जन्म देकर नदी तट पहुंच गईं तो शांतनु ने पूछा ही लिया कि प्रिये ऐसा क्यों कर रही हैं. गंगा ने शांतनु से कहा कि महाराज आपके सभी पुत्र जीवित और सुरक्षित हैं, बल्कि महर्षि वशिष्ठ के श्राप से मुक्ति दिलाई है. 


गंगा ने बताया कि वशिष्ठ ऋषि के पास दिव्य गाय कामधेनु थी, एक दिन आठ वसुओं ने चुराने का विचार किया और सभी ऋषि वशिष्ठ के आश्रम जा पहुंचे. एक वसु ने गाय चुरा ली, इसका पता ऋषि को चला तो वो क्रोधित हो उठे, उन्होंने वसुओं से कहा कि गाय चुराना मनुष्यों का स्वभाव है, तुमने वसु होकर मनुष्य जैसी हरकत की है, इसलिए तुम सब अब मनुष्य योनि में जन्म लोगे. यह सुनकर आठों वसु डर गए, उन्होंने ऋषि से क्षमायाचना की. ऋषि का मन पिघला तो उन्होंने कहा कि दिया श्राप वापस नहीं ले सकता, लेकिन मनुष्य रूप में जन्म होते ही तुम्हें मुक्ति मिलेगी, किसी एक को पापों के प्रायश्चित के लिए लंबे समय तक मनुष्य रूप में पृथ्वीलोक पर रहना पड़ेगा. सभी मेरे पास आए और विनती की कि मैं उनकी मां बनकर मनुष्य जन्म से मुक्ति दिलाएं. वही आठो वसु ने हमारे पुत्र के रूप में जन्म लिया, जिसमें सात को मुक्ति दिला दी, लेकिन आठवां वसु ऋषि के शाप के चलते मुक्त नहीं हो सका. अब इसे लम्बे समय तक मृत्यु लोक में रहना होगा. अब मैं शर्त अनुसार वापस जा रही हूं और पुत्र भी ले जा रही हूं. समय आने पर पुत्र लौटा दूंगी. इतना कहकर देवी गंगा आठवें पुत्र के साथ गंगा नदी में विलीन हो गईं. 


कई साल बाद एक दिन महाराज शांतनु गंगा किनारे घूम रहे थे तो देखा कि एक युवा ने तीरों से गंगा नदी का बहाव रोक दिया है. इस कारण गंगा का पानी सूखने लगा, उन्होंने युवक से नदी का बहाव बहाल करने को कहा लेकिन उसने मना कर दिया. इस पर देवी गंगा प्रकट हुईं और शांतनु से बोलीं, महाराज यह आपका ही पुत्र देवव्रत है. इसने शास्र ज्ञान शुक्राचार्य और अस्रशस्र ज्ञान परशुराम से प्राप्त किया है. इस महाप्रतापी पुत्र को मैं अब आपके हवाले कर रही हूं. इसके बाद गंगा चली गईं और शांतनु पुत्र देवव्रत के साथ हस्तिनापुर लौट आए. आगे चलकर यही देवव्रत प्रतिज्ञा के कारण भीष्म कहलाए.


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