Gita Jayanti 2024: आज मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष की ‘एकादशी’ तिथि तदानुसार 11 दिसंबर 2024 है. इसी तिथि को युद्ध से पहले कुरुक्षेत्र के समरांगण में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवत गीता का उपदेश दिया था. गीता में 700 श्लोक हैं और यह भीष्म पर्व के अंतर्गत आती है.
लेखक डॉ. महेंद्र ठाकुर के अनुसार ज्ञान का विस्तार करने की परंपरा का निर्वहन करते हुए विद्वानजनों ने श्रीमद्भगवत गीता पर अनेक टिका टिप्पणियाँ लिखी हैं और निश्चित रूप से भविष्य में भी लिखी जायेंगी और गीता की गंगा अनवरत अविरल बहती रहेगी.
इसके साथ ही वर्तमान समय में लोग अपने अपने हिसाब से गीता के श्लोकों की व्याख्या भी करते हैं. गीता विश्वभर में लोगों के जीवन को सफल बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है ऐसे प्रमाण आये दिन सोशल मीडिया के माध्यम से मिलते रहते हैं.
तेज गति से चलने वाली दुनिया में आज हर कोई बहुत छोटे यानी सार रूप में ही सब कुछ जानना चाहता है. एक समय था जब लोग लंबी वीडियो देखना पसंद करते थे, लेकिन अब ‘रील्स’ का जमाना आ गया है. लंबा न कोई पढ़ता है और न पढ़ना चाहता है. क्रिकेट के मैच भी 20-20 ओवर के होने लग गए हैं.
ऐसे में यदि श्रीमद्भगवत गीता का मूल सन्देश अथवा सार क्या है? इस प्रश्न का उत्तर सरल और बहुत कम शब्दों में देना हो तो कैसे दिया जा सकता है. यही प्रयास इस आलेख में किया जा रहा है.
श्रीमद्भगवत गीता में चार व्यक्तियों का संवाद है. जिसकी शुरुआत संजय से धृतराष्ट्र के प्रश्न से होती है और अंत संजय के उत्तर से होता है.
धृतराष्ट्र का प्रश्न ही श्रीमद्भगवत गीता के पहले अध्याय का पहला श्लोक है:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
ध्यातब्य है कि इस श्लोक का पहला शब्द है ‘धर्म’.
इसी तरह श्रीमद्भगवत गीता के अंतिम अर्थात् 18 वें अध्याय का अंतिम श्लोक है:
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
इस श्लोक का अंतिम शब्द है ‘मम’.
पहले अध्याय के पहले श्लोक के पहले शब्द ‘धर्म’ और अंतिम श्लोक के अंतिम शब्द ‘मम’ को मिलाकर यदि वाक्य बनाया जाए तो वह वाक्य बनेगा- ‘धर्म मम’ या ‘मम धर्म’. जिसका अर्थ होगा ‘धर्म मेरा’ या ‘मेरा धर्म’. मेरा धर्म ही ‘स्वधर्म’ कहलाता है.
युद्ध से पहले अर्जुन मोहवश या करुणावश अपने धर्म (स्वधर्म) यानी ‘युद्ध’ से भटक गया था. भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दायित्वबोध यानी ‘स्वधर्म का पालन’ करने के लिए ही गीता का उपदेश दिया था. ‘स्व’ का अर्थ ही ‘आत्म’ होता है. अध्यात्मिक स्तर पर यह स्वधर्म ‘आत्मा’ द्वारा ‘परमात्मा’ की सेवा करना है.
‘आत्मा’ द्वारा ‘परमात्मा’ की ‘सेवा’ करना ही ‘सनातन धर्म’ कहलाता है. धर्म का पालन ‘सदाचार’ के माध्यम से करने की शिक्षा हिन्दू धर्म शास्त्र देते हैं. सदाचार भी व्यक्तिगत विषय है अर्थात् व्यक्ति से ‘स्व’ या ‘आत्म’ से जुड़ा हुआ है.
पहले श्लोक का अर्थ है- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया? यहाँ धृतराष्ट्र ‘क्या किया’ अर्थात् ‘कर्म’ के बारे में पूछ रहे हैं. श्रीमद्भगवत गीता के अनुसार मनुष्य को केवल ‘कर्म’ करने का ही ‘अधिकार’ है और यही ‘अधिकार’ उसका ‘धर्म’ अथवा ‘स्वधर्म’ कहलाता है.
अंतिम श्लोक का अर्थ है कि जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है. अंतिम श्लोक का भावार्थ है कि जो मनुष्य भगवान के साथ योगमय रहकर अपने स्वधर्म का पालन करता है उसकी विजय निश्चित है, उसे ही श्री अर्थात् महालक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त होता है और यही अचल नीति अर्थात् शाश्वत सत्य है.
कुल मिलाकर श्रीमद्भगवत गीता मनुष्य को ‘अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित करते हुए अपने स्वधर्म का पालन’ करने का सन्देश देती है. अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित करते हुए जो मनुष्य अपने स्वधर्म का पालन करेगा, उसकी हर क्षेत्र में विजय होगी, यश प्राप्त होगा और मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य अर्थात् ‘मुक्ति’का मार्ग प्रशस्त होगा.
यही श्रीमद्भगवत गीता का सार है जो प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक के प्रथम शब्द और अंतिम अध्याय के अंतिम श्लोक के अंतिम शब्द को मिलाकर प्रकट होता है. श्रीमद्भगवत गीता अर्थात् ‘धर्म मम’ अर्थात् ‘मेरा धर्म’ अर्थात् ‘स्वधर्म’. नारायणायेती समर्पयामि ....
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