हज आर्थिक रूप से सक्षम हर मुसलमान पर फर्ज है. जिंदगी में एक बार मक्का-मदीना जाकर हज की अदायगी करना जरूरी होता है. हज इस्लाम का एक अहम हिस्सा होने की वजह से मुसलमानों की आस्था जुड़ा है. इसलिए हर मुसलमान की चाहत होती है कि जीवन में मक्का-मदीना जाकर हज की रस्मों को जरूर पूरा करें.


जकात और हज इस्लाम के पांच स्तंभों में से हैं. जकात में जहां मुसलमानों को अपनी आय का कुछ हिस्सा दान करना होता है वहीं हज यात्रा पर निकलने के लिए रकम खर्च करनी पड़ती है. इसलिए हज और जकात सिर्फ उसी हालत में फर्ज होता जब कोई मुसलमान आर्थिक रूप से मजबूत हो. हज इस्लामिक कैलेंडर के 12वें महीने यानी जिलहिज्जा की आठवीं से 12वीं तारीख तक किया जाता है. हज और उमरा की सारी प्रक्रियाएं एक जैसी होती हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि हज जिलहिज्जा के महीने में किया जाता है. हज यात्रा में पांच रस्में होती हैं.


एहराम बांधना


हज यात्रा पर निकलने से पहले मुसलमानों को एक खास तरह की पोशाक पहननी होती है. ये पोशाक दो चादर होती है जिसे शरीर के चारों तरफ लपेट लिया जाता है. एहराम बांधने के साथ ही दाढ़ी, बाल काटना मना हो जाता है. मुसलमानों को खुशबू लगाने से भी रोका जाता है. एहराम बांधने से पहले ही शरीर की साफ-सफाई कर लेने की सलाह दी जाती है. अपने मुल्क से निकलने के बाद हाजियों को सबसे पहले मक्का पहुंचते हैं. इब्राहिम और इस्सामइल के बसाए शहर में मुसलमान काबा का तवाफ करते हैं. दुनिया के किसी भी मत को माननेवाले मुसलमान के लिए काबा एकता का प्रतीक है. काबा की तरफ मुंह कर दुनिया के सभी मुसलमानों को पांचों वक्त की नमाज पढ़ना जरूरी होता है.


सफा-मरवा के बीच चक्कर लगाना


हज यात्रियों को सफा और मरवा नामक दो पहाड़ियों के बीच सात चक्कर लगाने होते हैं. सफा और मरवा के बीच पैगम्बर इब्राहिम की पत्नी ने अपने बेटे इस्माइल के लिए पानी तलाश किया था. ये रस्म उसी सिलसिले की कड़ी है.


मिना पहुंचना


मक्का से करीब 5 किलोमीटर दूर मिना में सारे हाजी इकट्ठा होते हैं और शाम तक नमाज पढ़ते हैं. अगले दिन अरफात नामी जगह पहुंच कर मैदान में दुआ का विशेष महत्व होता है.


रमी जमारात


अरफात से मिना लौटने के बाद शैतान के बने प्रतीक तीन खंभों पर कंकरियां मारनी पड़ती हैं. ये रस्म इस बात का प्रतीक होता है कि मुसलमान अल्लाह के हुक्म के आगे शैतान को बाधा नहीं बनने देंगे.


कुर्बानी


शैतान को कंकर मारने के बाद कुर्बानी की रस्म अदायगी होती है. कुर्बानी के लिए आम तौर पर भेड़, ऊंट या बकरे की व्यवस्था की जाती है. ये रस्म अल्लाह की राह में दौलत और औलाद की मोहब्बत को कुर्बान करने का प्रतीक माना जाता है. पैगंबर इब्राहिम हजारों साल पहले अल्लाह के आदेश पर अपने बेटे इस्माइल को कुर्बान करने को तैयार हुए थे.


कुर्बानी के तीन हिस्से में एक हिस्सा मुसलमान अपने लिए रख सकता है जबकि दो हिस्सों में दोस्तों और गरीबों को देना पड़ता है. कुर्बानी की रस्म पूरा होने के बाद पुरुष हाजियों को बाल मुंडवाने होते हैं. जबकि महिलाओं को थोड़े से बाल कटवाने पड़ते हैं. इस रस्म के बिना हज मुकम्मल नहीं माना जाता. बाल मुंडवाने के बाद तमाम हाजी काबा में इकट्ठा होकर इमारत की परिक्रमा करते हैं. काबा के चक्कर लगाने के साथ एक मुसलमान का हज पूरा हो जाता है.


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