Holi 2023 Special, Ayodhya Ram Sita Holi: होली रंगों का त्योहार है, लेकिन इसके कितने रंग है यह कहना मुश्किल है. होली अपने ही रंग में लोगों को रंग लेती है और जो इसके रंग में डूब गया वह मतवाला हो जाता है. फिर चाहे वह बृज में कृष्ण और राधा की प्रेम की प्रतीक वाली होली हो, श्मशाम में चिता के भस्म से खेली जाने वाली शिव की अद्भुत होली या फिर अयोध्या में राम-सीता की होली. होली के कई मनोरम दृश्य सदियों से देखने को मिल रहे हैं.


सियाराम लखन खेलैं होरी, सरजू तट राम खेलैं होरी,
राम जी मारैं भरी पिचकारी,
भरी पिचकारी- हो री पिचकारी लाज भरी सीता गोरी...
अबीर गुलाल उड़ावन लागैं, उड़ावन लागै- हो उड़ावन लागैं,
सब लायें भरी-भरी झोरी, सरजू तट राम खेलैं होरी.


होली के इस गीत में भगवान राम और सीता के बीच होली खेली गई होली के दृश्य को बताता है.




राम सीता की होली


खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी
इत राम लखन भरत शत्रुघ्न, उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।
छिरकत जुगल समाज परस्पर, मलत मुखन में रोरी, बाजत तृन तोरी।
बाजत झांझ, मिरिदंग, ढोलि ढप, गृह गह भये चहुं ओरी, नवसात संजोरी।
साधव देव भये, सुमन सुर बरसे, जय जय मचे चहुं ओरी, मिथलापुर खोरी।


इसका अर्थ है- अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेल रहे हैं. एक तरफ राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हैं तो वहीं दूसरी ओर सखियों संग माता सीता. केसर मिला रंग घोला गया है और दोनों तरफ से रंग डाला जा रहा है. मुंह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है. झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है. देवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं.



अयोध्या में कैसे हुई होली की शुरुआत


होली का पर्व भारतीय परंपरा का अभिन्न अंग है. इसकी शुरुआत मुख्य रूप से सतयुग काल में हुई एक घटना के बाद से मानी जाती है, जोकि भक्त प्रह्लाद और उनकी बुआ होलिका से जुड़ी हुई है और इसी के उपलक्ष्य में हर साल होली की पूर्व संध्या में चौहारे पर होलिका दहन किया जाता है. होली से जुड़ी यह कथा खूब प्रचलित है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि होली की परंपरा की शुरुआत अयोध्या के धर्मावलंबी और विद्वान भगवान श्रीराम के वंशज महाराजा रघु से भी जोड़ा जाता है, जिसके अनुसार त्रेतायुग में होली की परपंरा की शुरुआत मानी जाती है.


त्रेयायुग में अयोध्या से जुड़ी होली की पौराणिक मान्यता


कहा जाता है कि, भगवान श्रीराम के वंशज महाराजा रघु ने अपने शासनकाल में एक राक्षसी के उपद्रव से दुखी होकर उसके संहार के लिए होलिका की परंपरा की शुरुआत की थी. दरअसल त्रेता काल में महाराजा रघु के समय में एक ढूंढा नाम की राक्षसी थी. उसके उपद्रव और अत्याचार इतने बढ़ गए थे कि सभी लोग त्रस्त हो गए थे.


तब महाराजा रघु ने गुरु वशिष्ट से राक्षसी से मुक्ति के निवारण के बारे में पूछा. गुरु वशिष्ठ ने महाराजा रघु से कहा कि, चौक-चौराहे पर यदि दहन किया जाए तो उसका उपद्रव स्वत: ही शांत हो जाएगा. गुरु के कहेनुसार महाराजा रघु ने पूरे नगर में यह सूचना दिलवा दी. इसके बाद सभी चौराहों पर लकड़ियां एकत्र कर युवाओं ने दहन किया और उस राक्षसी का उपद्रव समाप्त हो गया. तब से होलिका दहन की परंपरा की शुरुआत मानी जाती है.


होली के दिन लक्ष्मण जी को मिला था ये अधिकार


अयोध्या में होली को लेकर एक लोककथा खूब प्रचलित है. इसके अनुसार होली के दिन ही लक्ष्मण जी को श्री राम की चरणसेवा का अधिकार मिला था. लक्ष्मण जी अपने बड़े भाई प्रभु श्रीराम की चरणसेवा करते थे. लेकिन जब रामजी से विवाह के बाद माता सीता अयोध्या आ गईं तो चरणसेवा का अधिकार भी उनका हो गया. ऐसे में लक्ष्मण जी कक्ष के बाहर ही भटकते रहते थे. इस कारण लक्ष्मण जी दुखी रहने लगे और प्रभु की चरणसेवा न मिलने के कारण उनका शरीर सूखने लगा था.


एक दिन रामजी ने लक्ष्मण से उनके दुखी रहने और सूखने का कारण पूछा. तब लक्ष्मण बोले- प्रभु, माता सीता मुझे न तो नहीं कहती लेकिन मुझे भीतर भी नहीं बुलातीं. मैं आपकी चरणसेवा के बिना नहीं जी सकूंगा. रामजी बोले- वह मेरी धर्मपत्नी है और इस तरह उसका प्रथम अधिकार है . तब लक्ष्मण जी ने श्रीराम को कुछ उपाय बताने को कहा.


रामजी बोले- एक उपाय है. चार दिन बाद होली का त्योहार आने वाला है. रघुकुल में यह रीति है कि इस दिन देवर भाभी के साथ होली खेलते हैं और संध्या में बड़ों की उपस्थिति में देवर भाभी से जो कुछ भी मांगता है वह भाभी को देना पड़ता है. तुम होली के दिन होली खेलने के बाद संध्या में जब सीता से मांगने जाओ तो अपनी इच्छा पूरी कर लेना.


रामजी की युक्ति से लक्ष्मण प्रसन्न हो गए और होली का बेसब्री से इंतजार करने लगे. चार दिन पूरे हुए और होली आई. सीताजी के साथ लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ने पूरी पवित्रता के साथ होली खेली. शाम होते ही सभी सीताजी के पास चरणस्पर्श के लिए पहुंचे. भरत और शत्रुघ्न  के बाद लक्ष्मण जी की बारी आई. लक्ष्मण ने माता सीता के चरण स्पर्श किए. सीता जी ने लक्ष्मण को आशीर्वाद स्वरूप कुछ मांगने को कहा, तब लक्ष्मण बोले- ‘माता! होली की और कोई भेंट तो मुझे नहीं चाहिए, केवल श्री राम की चरण सेवा का अधिकार मेरा बनें.'




इतना सुनते ही सीताजी बेहोश हो गयीं. क्योंकि प्रभु राम की चरणसेवा उनका अधिकार था और लक्ष्मण जी को यह अधिकार देकर वह रघुवंश की पुत्रवधु होने का वचन नहीं तोड़ सकती थीं. लक्ष्मण जी दौड़े-दौड़े श्रीराम के पास पहुंचे और माता सीता के बारे में बताया. श्रीराम ने लक्ष्मण को एक युक्ति बताई, जिसे सुनकर वे सीताजी के पास पहुंचे और उनके कान में कहा, माता! चरणसेवा के अधिकार में हम दोनों बंटवारा कर लें. दायां चरण मेरा और बायां चरण आपका. आप जब प्रभु के चरणों की सेवा करने जाएं तो मुझे भी बुला लिया करें. इतना सुनकर सीता जी की मूर्च्छा समाप्त हो गई और होली के पावन दिन पर ही लक्ष्मण जी को प्रभु के चरणसेवा का अधिकार प्राप्त हुआ.


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