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Vastu Shastra : वास्तुपुरुष कैसे करते हैं जीवन खुशहाल ? भूमि और भवन से कैसा है इनका संबंध

Vastu Shastra : यदि भवन या अन्य किसी भी निर्माण को प्राकृतिक अनुकूलता प्रदान की जाए तो उसके फल भी व्यक्ति के अनुकूल होंगे.

Vastu Shastra: ब्रह्मांड की हर वस्तु का निर्माण पांच तत्वों से हुआ है और इनकी प्राप्ति किस प्रकार की जाए यही वास्तुशास्त्र है. प्रकृति के अनुरूप या प्रकृति के अनुसार किये गए कार्य का फल सर्वथा अनुकूल होता है. यदि भवन या अन्य किसी भी निर्माण को यदि प्राकृतिक अनुकूलता प्रदान की जाए तो उसके फल भी व्यक्ति के अनुकूल होंगे तथा ऐसे  किसी भी भवन निर्माण का उपयोग करने वाला व्यक्ति प्रकृति से सामंजस्य स्थापित होने के कारण किसी भी प्रकार के दोष से मुक्त होते हुए खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकता है.

पंचतत्व वास्तु पुरुष तथा चयन की गई भूमि पर देवों की आराधना से मनुष्य अपने को समर्पित करते हुए इनका कृपापात्र बन जाता है. इन सबकी कृपा दृष्टि से उसकी भूमि और इस प्रकार किया गया निर्माण सकारात्मक ऊर्जाओं से भरपूर हो जाता है. एक व्यक्ति यदि किसी भी प्रकार का भूमि चयन तथा उस पर भवन या अन्य कोई निर्माण करे तो वास्तु विज्ञान के द्वारा उसे प्रकृति, वास्तुपुरुष तथा देवी देवताओं की शक्तियों का समर्थन प्राप्त हो जाता है. वास्तु पुरुष को एक प्राणमय पुरुष बनाकर उनके आध्यात्मिक स्वरूप को पूरा-पूरा महत्व दिया गया है. प्रशंसा, संतुष्टि एवं सेवा से किसी भी जीव, मनुष्य को प्रसन्न कर उसकी कृपा प्राप्त की जा सकती है. प्रकृति के विपरीत आचरण करने वाले को कष्टों, समस्याओं, रोगों, दारिद्र आदि पीड़ाओं का सामना करना पड़ता है. यही वास्तु शास्त्र का रहस्य है.

सकारात्मक ऊर्जा- भवन निर्माण का विज्ञान वास्तु विज्ञान प्रकृति में उपस्थित विभिन्न प्रकार के सकारात्मक ऊर्जाओं का अपनी आवश्यकता अनुसार संचयन व उत्तम भोजन के लिए सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होती है. जिसकी प्रतिस्थापन करना वास्तु विज्ञान है. जिस प्रकार एक स्वस्थ शरीर के लिए उत्तम एवं स्वास्थ्यवर्धक योजना की आवश्यकता होती है. भूमि, वायु, नक्षत्रों तथा दो ग्रहों, जल तथा आकाश आठों दिशाओं अग्नि विपरीत दिशाओं के मध्य चलने वाली चुंबकीय तथा अन्य प्रकार की वैद्युत तरंगों से होती है.

वास्तुशास्त्र परिचय- वास्तु पंचतत्वों (जल, पृथ्वी, वायु एवं आकाश) तीनों बलों (गुरुत्व, चुम्बकीय और सौर ऊर्जा अष्ट दिशाओं, ग्रहों, नक्षत्रों की गति पर आधारित पराविज्ञान है. प्रकृति के इन कारकों के अनुरूप आवास का निर्माण करना जिससे इन शक्तियों को भवन में संतुलित व व्यवस्थित रखकर जीवन को सुखमय बनाया जा सके, इसी विज्ञान को वास्तुशास्त्र कहते हैं.

वास्तु पुरुष की उत्पत्ति- एक बार भगवान शिव और अंधकासुर नामक राक्षस के मध्य युद्ध हुआ. इसमें भगवान शिव के पसीने की एक बूंद से एक विशाल एवं क्रूर प्राणी का जन्म हुआ जिससे समस्त जगत में हलचल हो गई. ब्रह्मा जी की आज्ञा से  देवों ने उसे पृथ्वी पर औंधे मुंह गिरा दिया, गिरते समय इसका सिर ईशान तथा पैर नैऋत्य कोण में थे. तब इसके द्वारा ब्रह्मा जी की आराधना करने पर ब्रह्मा जी ने उसे वास्तुपुरुष बनाया और आर्शीवाद दिया कि तुम्हारी पूजा किए बिना किया गया निर्माण व्यक्ति के जीवन में दारिद्र एवं अंधकार ले आएगा.   

वास्तु पुरुष की सहायता किसी भूखण्ड में औंधे मुंह, लेटे हुए पुरुष के रूप में की गई है, जिसका सिर ईशान कोण में, उत्तर व पूर्व में कंधे, वायव्य व अग्नि कोण में कुहनियां, दोनों पैरों को मोड़े, कुहनियों को छूते हुए, नैऋत्य कोण में जुड़े हुए तलवे हैं. वास्तुपुरुष के नियम विरुद्ध स्थापन पर उस पद के अधिकारी देवता अपनी प्रकृति के विपरीत प्रभाव देते हैं तथा यदि पद के स्वामित्व के अनुकूल स्थापना होती है तो अनुकूल फल प्राप्त होता है. ब्रह्मा के वरदान स्वरूप वास्तु पुरुष को पूजा का अधिकार मिला और यह कहा गया कि पृथ्वी पर निर्माण कार्य तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष की पूजा होगी और बलि इत्यादि देकर उन्हें प्रसन्न किया जायेगा. यह वास्तु पुरुष ही वास्तु देवता हो गये. 

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