सनातन धर्म राष्ट्र प्रेम, देश सेवा, क्रांतिकारी और राष्ट्र की सुरक्षा की प्रेरणा देता है. तभी तो इतने स्वतंत्र सैनिकों ने देश के लिए अंग्रजों के खिलाफ लड़कर बलिदान दिया, जिसके स्वरुप हम हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं.


वेदों में राष्ट्रियता की उदात्त भावना का भरपूर समावेश है. ऋग्वेद 10.191.2 में परमात्मा से प्रार्थना की गई है-


"सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।"


अर्थात्– "हे परमात्मा! आप हमें ऐसी बुद्धि दें कि हम सब परस्पर हिलमिल कर एक साथ चलें. एक-समान मीठी वाणी बोलें और एक-समान हृदय वाले होकर स्वराष्ट्र में उत्पन्न धन-धान्य और सम्पत्ति को परस्पर समानरूप से बांटकर भोगें. हमारी हर प्रवृत्ति राग-द्वेष रहित परस्पर प्रीति बढ़ाने वाली हो."


ऋग्वेद के 'इन्द्र-सूक्त' (10.47.2) में परमात्मा से स्वराष्ट्र के लिए धन-धान्य, पुत्रों से समृद्ध होने की कामना की गई है-


"स्वायुधं स्ववसं सुनीथं चतुः समुद्रं धरुणं रयीणाम्। चकृत्यं शंस्यं भूरिवारमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः॥"


तात्पर्य यह कि "हे परमैश्वर्यवान् परमात्मन्! आप हमें धन-धान्य से सम्पन्न ऐसी संतान प्रदान कीजिए, जो उत्तम एवं अमोघ शस्त्रधारी हो, अपनी और अपने राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ हो तथा न्याय, दया दाक्षिण्य और सदाचार के साथ जन-समूह का नेतृत्व करने वाली हो, साथ ही नाना प्रकार के धनों को धारण कर परोपकार में रत एवं प्रशंसनीय हो तथा लोकप्रिय एवं अद्भुत गुणों से सम्पन्न होकर जन-समाज पर कल्याणकारी गुणों की वर्षा करनेवाली हो."


राष्ट्र की रक्षा में और उसकी महत्ता में ऐसी ही अनेक ऋचाएं पर्यवसित हैं, जिनमें से यहां कुछ का उल्लेख किया जा रहा है, जैसे-


उप सर्प मातरं भूमिम्। (ऋग्वेद 10.18.10)


"निम्न मंत्र से मातृभूमि को नमन करते हुए कहा गया है- मातृभूमि की सेवा करो।"


"नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्या।" (यजुर्वेद 9.22)


अर्थात्– "मातृभूमि को नमस्कार है". यहां 'पृथ्वी' का अर्थ मातृभूमि या स्वदेश ही उपयुक्त है. अतः हमें अपने राष्ट्र में सजग होकर नेतृत्व करने हेतु एक ऋचा यह उद्घोष करती है- वयःराष्ट्र जागृयाम पुरोहिताः॥(यजुर्वेद 9.23)


अर्थात्– "हम अपने राष्ट्र में सावधान होकर नेता बने."


क्रान्तदर्शी (क्रांतिकारी), शत्रुघातक अग्निकी उपासना-हेतु निम्न मन्त्रमें प्रेरित किया गया है-


कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम्।। (सामवेद 1.1.32)


"हे स्तोताओ। यज्ञमें सत्यधर्मा, क्रान्तदर्शी, मेधावी, तेजस्वी और रोगों का शमन करने वाले शत्रुघातक अग्निकी स्तुति करो."


अथर्ववेद के 'भूमि-सूक्त' में ईश्वर ने यह उपदेश दिया है कि अपनी मातृभूमि के प्रति मनुष्यों को किस प्रकार के भाव रखने चाहिए. वहां अपने देश को माता समझने और उसके प्रति नमस्कार करने का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया गया है- "सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः।।" (अथर्व वेद 12.1.10)


"पृथ्वी माता अर्थात् मातृभूमि, मुझ पुत्र के लिए दूध आदि पुष्टिकारक पदार्थ प्रदान करें."


माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। (अथर्व वेद 12.1.12)


"भूमि (स्वदेश) मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं."


भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्। (अथर्व वेद 12.1.63)


"हे मातृभूमि! तू मुझे अच्छी तरह प्रतिष्ठित करके रख."


सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यमभि हर्यंत वत्सं जातमिवाध्या।। (अथर्व वेद 3.30.1)


"परस्पर हृदय खोलकर एकमना होकर कर्मशील बने रहो. तुरंत जन्मे बछड़े को छेड़ने पर गौ जैसे सिंहिनी बनकर आक्रमण करने को दौड़ती है, ऐसे तुम लोग सहृदयजनों की आपत्ति में रक्षा के लिए कमर कसे रहो."


इसलि हमें चाहिए कि अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए आत्म बलिदान करने के लिए हम सदा तत्पर रहें. "उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूताः। दीर्घ न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम॥" (अथर्व० 12.1.62)


"हे मातृभूमि! तेरी सेवा करने वाले हम निरोग और आरोग्यपूर्ण हों. तुमसे उत्पन्न हुए समस्त भोग हमें प्राप्त हों, हम ज्ञानी बनकर दीर्घायु हों तथा तेरी सुरक्षा-हेतु अपना आत्मोत्सर्ग करने के लिये भी सदा संनद्ध रहें."


इस प्रकार वेद ज्ञान के महासागर है तथा विश्व-वाङ्मय की अमूल्यनिधि एवं भारतीय आर्य संस्कृति के मूल आधार है. उनमें राष्ट्रियता की उदात्त भावनाका भरपूर समावेश है. अतः हम सभी राष्ट्र वासियों को चाहिओ कि हम राष्ट्र रक्षा में समर्थ हो सकें,  इसके लिए वेद की शिक्षाओं को समग्र रूप से ग्रहण करें.


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