Kabirdas Jayanti 2024: कबीरदास जयंती कब है ? इसका धार्मिक महत्व, उनसे जुड़ी रोचक बातें जानें
Kabirdas Jayanti 2024: कबीरदास जयंती ज्येष्ठ पूर्णिमा पर मनाई जाती है. कबीरदास जी के जीवन से जुड़ी कई रोचक बातें हैं जो लोगों को हैरान करती है. जानें कबीरदास जयंती 2024 की डेट, महत्व और खास बातें.
Kabirdas Jayanti 2024: पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। - ये दोहा सुनते ही जिनका नाम जहन में आता है, वो हैं संत कबीर दास. ऐसे न जाने कितने और दोहों और अपनी रचनाओं से लोगों को प्रेरणा देने वाले संत कबीरदास जी की जयंती हर साल ज्येष्ठ पूर्णिमा पर मनाई जाती है.
कबीरदास जी न सिर्फ एक कवि बल्कि समाज सुधारक भी थे. भक्ति आंदोलन पर भी कबीरदास जी के लेखन का काफी प्रभाव पड़ा था. आइए जानते हैं इस साल 2024 में कबीरदास जयंती की डेट, उनके जीवन से जुड़ी खास बातें.
कबीरदास जयंती 2024 डेट (Kabirdas Jayanti 2024
इस साल कबीरदास जयंती 22 जून 2024 को है, ये कबीरदास जी की 647वीं वर्ष गांठ होगी. पूर्णिमा तिथि की शुरुआत 21 जून को सुबह 07.31 पर होगी और इसका समापन 22 जून को सुबह 06.37 पर होगा.
कबीर की रचनाओं का प्रमुख भाग पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव के जरिए एकत्र किया गया था तथा सिख धर्मग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित किया गया था. कबीर के कार्यों की पहचान उनके दो पँक्तियों के दोहे हैं, जिन्हें कबीर के दोहे के नाम से जाना जाता है.
कबीरदास जी से जुड़ी खास बातें
कबीरदास जी के जन्म को लेकर मान्यता है कि कबीरदास जी ने रामानंद गुरु के आशीर्वाद से एक विधवा ब्रह्माणी के गर्भ से जन्म लिया था.समाज के भय से उन्होंने कबीर को काशी के पास लहरतारा नामक ताल के पास छोड़ दिया था, जिसके बाद एक जुलाहे ने उनका पालन पोषण किया. कबीरदास जी देशाटन करते थे और सदैव साधु-संतों की संगति में रहते थे.
कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे. वे एक ही ईश्वर को मानते थे. वे अंध विश्वास, धर्म व पूजा के नाम पर होने वाले आडंबरों के विरोधी थे. कबीरदास जी ने अपने दोहों में जीवन को सुखी और सफल बनाने के सूत्र बताए हैं. अगर इन सूत्रों को जीवन में उतार लिया जाए तो तमाम परेशानियां दूर हो सकती है.
अंधविश्वास के खिलाफ
एक अंधविश्वास था कि जिसकी मृत्यु काशी में होगी वो स्वर्ग जाएगा और मगहर में होगी वो नर्क में जाएगा. इसी भ्रम को तोड़ने के लिए कबीर ने अपना जीवन काशी में गुजारा, जबकि प्राण मगहर में त्यागे थे.
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