Jyotish Shastra :  'मनः त्रायते इति मंत्रः' अर्थात जो मन को त्राण दें, उसका परिहार करे, उसे परिष्कृत, परिमार्जित करे, वहीं मंत्र है. जिस तरह रागों का एक नियम है, निश्चित विधान है, निश्चित समय है, स्वर है उसी तरह मंत्रों के भी निश्चित देवता हैं, निश्चित तत्व हैं, निश्चित विनियोग और विमोचन हैं. बिना उनके सही उच्चारण से मंत्र द्वारा की आराधना कभी सफल नहीं हो सकती. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस तरह किसी राग का साधक धीरे-धीरे अपने स्वर तंत्र को शुद्ध करता हुआ अपनी वाक्-शक्ति को जगाता है और अपने मन को उसमें लगाता है, और उससे राग की रमणीयता पैदा करता है, उसी तरह मंत्र साधक को भी वाणी की सतसाधना, देवता तत्व के आंतरिक सामंजस्य और उनकी गहरी समझ के साथ साधना करनी चाहिए. उसी तरह जैसे एक राग साधक को राग सिद्ध होता है, वैसे ही मंत्र साधक को मंत्र भी सिद्ध होता है. अनवरत प्रयास, अखंडित नियम, मंत्र जाप का निश्चित समय, इसके आवश्यक तत्व हैं. ऐसा करते हुए साधक सिद्ध हो जाता है.


मंत्र सिद्धि कोई जादू या चमत्कार नहीं है, बल्कि मंत्र के साथ ऐसा तादात्म्य है, जिसमें साधक और साध्य एकाकार हो जाते हैं या यूं कहें कि मंत्र साधक में समाहित हो जाता है और साधक का तन-मन और आत्मा मंत्र को समर्पित हो जाती है. इस स्थिति में साधक मंत्र दृष्टा हो जाता है यानी इस स्थिति में साधक मंत्र और उसके रहस्य को देखता है. महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी कारणवश यदि साधक इस जन्म में मंत्र सिद्ध नहीं कर पाया और उस मार्ग पर चलता रहा तो शरीरांत के बाद पुनर्जन्म में उसकी यात्रा वहीं से शुरू होती है, क्योंकि मंत्र जाप के जो चिन्ह मन पर पड़ते हैं, वे भौतिक वस्तुओं की तरह नश्वर नहीं होते और शरीर के साथ नष्ट नहीं हो जाते.


विज्ञान कहता है संसार में ध्वनि से ऊर्जा तरंगे निकलती हैं. संसार में ध्वनि या स्वर मूल बात है. शब्द भी एक ध्वनि या स्वर मूल बात है. शब्द भी एक ध्वनि है. हां उसकी ध्वनि अर्थयुक्त है लेकिन अर्थ इसमें महत्वपूर्ण नहीं होता. महत्वपूर्ण तो ध्वनि या नाद ही है. वेदों ने नाद को ब्रह्म कहा है. ब्रह्म का अर्थ है विस्तृत होता हुआ. नाद एक ऊर्जा है और इसमें फैलने की, विस्तारित होने की स्वाभाविक क्षमता होती है. मंत्र कुछ ऐसे नाद या ध्वनियों का समूह है जिससे एक विशेष प्रकार की ऊर्जा तरंगे समवेत रूप से शक्तिशाली आवर्तन करती हैं. इस विशेष आवर्तन प्रत्यावर्तन से एक संगठित ऊर्जा क्षेत्र विकसित होता है. इस ऊर्जा का प्रभाव व्यक्तियों पर ही नहीं, वस्तुओं पर भी छोड़ता है.


पतंजलि के योग शास्त्र में वाणी के चार भेद बताए गए हैं, जो बैखरी, मध्यमा, पश्यंती और परा है. पतंजलि कहते हैं कि चारों वाणियां धीरे-धीरे स्थूल से सूक्ष्म हो जाती हैं. प्रारंभिक अवस्था में जब कोई साधक जोर-जोर से उच्चारण करता है तो उसे वाचिक जाप कहा जाता है. इसमें कुशल होने के उपरांत दूसरा चरण उपांशु जप का आता है. इसमें उच्चारण बहुत धीमे स्वर में किया जाता है. पतंजलि के अनुसार यह मध्यमा वाणी का प्रयोग है. इसके बाद के चरण अत्यंत सूक्ष्म होते जाते हैं, जिसे अजपा कहा जाता है वह अपने भीतर चल रहे जाप को देखना भर है. पतंजलि इसे पश्यंति कहते हैं. इस स्थिति में साधक अपने भीतर चल रहे मंत्र जाप का साक्षी या दृष्टा भर रह जाता है.


पतंजलि के अनुसार वाणी की चौथी अवस्था सर्वोच्च परा अवस्था है. इसमें शरीर अपने अन्य कर्म करता हुआ भी मन और आत्मा से कभी मंत्र से अलग नहीं होता. उसका पूरा शरीर घनीभूत होकर मंत्रवत हो जाता है. ऐसा व्यक्ति अपने मुख से जो कह दे वह अस्तित्व के साथ पूरा होता है क्योंकि अस्तित्व और उस व्यक्ति में भेद नहीं होता. ऐसी अवस्था को संत कबीर ने कहा था- 


'जाप मरे, अजपा मरे, अनहद हू मारि जाए'


अर्थात इन सबके आगे ही ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित होता है.


मंत्र साधना कोई साधारण बात नहीं है. उचित तरीके से इसकी ध्वनि रहस्य और नाद को समझे बिना यह लाभदायक नहीं होता, इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि मंत्र की दीक्षा किसी गुरु से लेनी चाहिए क्योंकि मंत्रसिद्ध गुरुमंत्र के रहस्य, ध्वनि घोष और तत्व के गहन अर्थ को भलीभांति जानता है.


दरअसल कोई भी मंत्र शब्दों का ऐसा समूह है जिसमें शब्दों के अर्थ, वर्णों के तत्व, स्वर का घोष तय करता है कि मंत्र किस प्रयोग का है और किस दिशा में काम करेगा. सृष्टि में एक लयबद्धता है, एक तारतम्य है. मंत्र आपको लयबद्धता में पहुंचा सकता है, यह तभी हो सकता है जब आप उसके अर्थ को समझते हुए उस दिशा में प्रयास करें.


आपने सुना होगा कि प्रसिद्ध गायक तानसेन जब मल्हार गाते थे तो पानी बरस जाता था और जब राग दीपक गाते थे तो दीए जल जाते थे. यकीनन उनके गायन में इतनी जीवंतता रही होगी कि दीयों को जलना ही पड़ा. इसी तरह मंत्र से भी एक खास तरह की ऊर्जा प्रसारित होती है जो शरीर के रसायनों से लेकर सृष्टि के सभी तत्वों को परिवर्तित करने की क्षमता रखती है. लेकिन बिना कुशल मार्गदर्शन के यह असंभव है. तानसेन ने भी राग दीपक से दीए जलाने और राग मल्हार से पानी बरसाने की विद्या स्वामी हरिदास जी के चरणों में बैठकर ही सीखी. मंत्र विद्या के साथ भी यही बात है. कभी-कभी सतत अभ्यास से भी साधक को वह लय पकड़ में आ जाती है.


हर मंत्र का अपना एक अलग वर्ण और विन्यास है, इसलिए हर व्यक्ति के लिए हर मंत्र उपयोगी भी नहीं होता. फिर मंत्र की शक्ति की महिमा स्वर की शुद्धता पर निर्भर करती है. इसीलिए वेद में स्वर को सरस्वती कहा गया है. यदि स्वर शुद्ध और सिद्ध है तो मंत्र के चमत्कार निश्चित सिद्ध होंगे. परिष्कृत वाणी ही मंत्र को सार्थकता दे सकती है परिष्कृत वाणी तभी होगी जब मन शुद्ध होगा. शुद्ध स्वर वाणी के लोगों में एक कल्याणकारी रमणीयता आ जाती है इसलिए उनके अनुष्ठान सफल होते हैं. यह ध्यान रखना चाहिए कि मंत्र आराधना जीभ या मुख की हलचलों से उत्पन्न हुई शब्द श्रृंखला मात्र नहीं है. मंत्र में मन की शक्ति लगे बिना यह मात्र पुनरुक्ति ही रह जाता है.


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