महाभारत के युद्ध में महारथी अंग राज कर्ण पराजित हो चुके थे. उनकी काया युद्ध भूमि में पड़ी हुई थी. रात्रि के समय एक स्त्री युद्ध भूमि में विलाप करती मिली. इस पर पांडव उस स्थान पर देखने पहुंचे और आश्चर्य से भर गए. वो स्त्री और कोई नहीं बल्कि उनकी माता कुंती थीं. उनकी माता अंगराज के शव को गोद में लेकर बिलख-बिलख कर रो रही थीं. यह देख कर पांचों पाण्डव हैरान थे. इस पर युद्धिष्ठिर ने कुंती से पूछा माता आप हमारे शत्रु की मृत्यु पर विलाप क्यों कर रही हैं.
इस पर माता कुंती ने कर्ण जन्म की कथा बताई. मुझे ऋषि दुर्वासा ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर एक मंत्र तथा वरदान दिया था कि तुम इस मन्त्र द्वारा जिस देवता का आवाहन करोगी. उसी के अनुग्रह से तुम्हेंस पुत्र प्राप्त होगा. उस समय मैंने इस मंत्र से परीक्षा लेनी चाही और सूर्य देवता का आवाहन किया. जिसके फलस्वरूप मुझे कवच कुंडल धारी सूर्य पुत्र कर्ण हुआ. परन्तु लोक लाज के डर से भयभीत हो कर मैंने उस तेजस्वी बालक को एक संदूक में डालकर नदी में प्रवाहित कर दिया. तत्पश्चात मेरा विवाह तुम्हारे पिता पाण्डु से हुआ और तुम पांडव हुए. परंतु मैंने कभी नहीं बताया कि कर्ण मेरा प्रथम पुत्र है. तेजस्वी और सूर्यपुत्र होने के बाद भी कर्ण को पूरी जिंदगी अपमान का दुख सहना पड़ा.
माता की इस कथा पर युधिष्ठिर बहुत क्रोधित हुए और अपने बड़े भ्राता का विधिपूर्वक अंतिम संस्कार किया. इस समय उन्होंने सम्पूर्ण स्त्री जाति को श्राप दिया कि अब से कोई स्त्री अपने पेट में कोई बात नहीं छिपा पाएगी. ऐसी मान्यता है कि युधिष्ठिर के श्राप के कारण ही स्त्रियां बतूनी होती हैं उनके पेट में कोई बात छिप नहीं सकती है.