यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
Srimad Bhagwat Geeta: श्रीमद्भागवत गीता का यह श्लोक जीवन के सार और सत्य को बताता है. निराशा के घने बादलों के बीच ज्ञान की एक रोशनी की तरह है यह श्लोक. यह श्लोक श्रीमद्भागवत गीता के प्रमुख श्लोकों में से एक है. यह श्लोक श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 4 का श्लोक 7 और 8 है.
पूर्ण श्लोक
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4-7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4-8॥
इस श्लोक का अर्थ
मैं अवतार लेता हूं. मैं प्रकट होता हूं. जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं. जब जब अधर्म बढ़ता है तब तब मैं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं.
श्लोक -शब्दार्थ
इस श्लोक को आसानी से समझने के लिए यहां पर श्लोक के प्रत्येक शब्द के शब्दार्थ दिए जा रहे हैं. इसे ऐसे समझें-
यदा यदा : जब-जब
हि: वास्तव में
धर्मस्य: धर्म की
ग्लानि: हानि
भवति: होती है
भारत: हे भारत
अभ्युत्थानम्: वृद्धि
अधर्मस्य: अधर्म की
तदा: तब तब
आत्मानं: अपने रूप को रचता हूं
सृजामि: लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ
अहम्: मैं
परित्राणाय: साधु पुरुषों का
साधूनां: उद्धार करने के लिए
विनाशाय: विनाश करने के लिए
च: और
दुष्कृताम्: पापकर्म करने वालों का
धर्मसंस्थापन अर्थाय: धर्मकी अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए
सम्भवामि: प्रकट हुआ करता हूं
युगे युगे: युग-युग में
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