Mahakumbh 2025: सनातन धर्म के प्राचीन काल से ही कुम्भ मनानेकी प्रथा चली आ रही है. हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानों में क्रमशः बारह-बारह वर्षपर पूर्णकुम्भका मेला लगता है, जबकि हरिद्वार तथा प्रयागमें अर्धकुम्भ-पर्व भी मनाया जाता है; किन्तु यह अर्धकुम्भ-पर्व उज्जैन और नासिक में नहीं होता.


अर्धकुम्भ-पर्व के प्रारम्भ होने के सम्बन्धमें कुछ लोगोंका विचार है कि मुगल-साम्राज्य में हिन्दू-धर्मपर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों दिशाओं के शंकराचार्यों ने हिन्दू-धर्म की रक्षा के लिये हरिद्वार एवं प्रयागमें साधु-महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानों को बुलाकर विचार-विमर्श किया था, तभी से हरिद्वार और प्रयाग में अर्धकुम्भ-मेला होने लगा। शास्त्रों में जहाँ कुम्भ-पर्व की चर्चा प्राप्त है, वहाँ पूर्णकुम्भ का ही उल्लेख मिलता है-


पूर्णः कुम्भोऽधि काल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः । स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥


(अथर्ववेद 19.53.3)


हे सन्तगण ! पूर्णकुम्भ बारह वर्षके बाद आता है, जिसे हम अनेक बार हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक- इन चार तीर्थस्थानोंमें देखा करते हैं. कुम्भ उस कालविशेषको कहते हैं, जो महान् आकाशमें ग्रह- राशि आदिके योगसे होता है.


हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानों में प्रत्येक बारहवें वर्ष में कुम्भ पड़ता है. किन्तु इन चारों स्थानों के कुम्भ-पर्वका क्रम इस प्रकार निर्धारित है, मेष या वृषके बृहस्पतिमें जब सूर्य, चन्द्रमा दोनों मकर राशिपर आते हैं तब प्रयागमें कुम्भ-पर्व होता है.


इसके पश्चात् वर्षोंका अन्तराल जो भी हो, जब बृहस्पति सिंह में होते हैं और सूर्य मेष राशिपर रहता है तो उज्जैन में कुम्भ लगता है. उसी बार्हस्पत्य वर्ष में जब सूर्य सिंहपर रहता है तो नासिक में कुम्भ लगता है तत्पश्चात् लगभग छः बार्हस्पत्य वर्षों के अन्तरालपर जब बृहस्पति कुम्भ राशिपर रहता है और सूर्य मेष पर तब हरिद्वार में कुम्भ होता है. इनके मध्यमें छः-छः वर्ष के अन्तर से केवल हरिद्वार और प्रयाग में अर्धकुम्भ होता है.


यथार्थतः पूर्वाचार्योंद्वारा स्थापित अर्धकुम्भ-पर्व का माहात्म्य अपार है; क्योंकि अर्धकुम्भ-पर्व का उद्देश्य पूर्णकुम्भ की तरह विशेष पवित्र और लोकोपकारक है. लोकोपकारक पर्वों से धर्म के प्रचारके साथ-साथ देश और समाजका महान् कल्याण सुनिश्चित है


कुम्भ पर्व (गीता प्रेस) अनुसार, कुंभ की उत्पत्ति समुद्र मंथन से जुड़ी है, जब अमृत कलश निकलने के बाद देवताओं और दानवों के बीच बारह दिनों तक निरंतर युद्ध हुआ. इस संघर्ष के दौरान, अमृत कलश पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर गिरा.


चंद्रमा ने घट से अमृत के बहाव को रोका, सूर्य ने घट को टूटने से बचाया, गुरु ने दैत्यों से घट की रक्षा की, और शनि ने देवराज इंद्र के भय से घट की सुरक्षा की. अंततः भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर सभी को अमृत बांट दिया और इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत हुआ.


बारह की संख्या का कारण यह है कि अमृत- प्राप्ति के लिये देव-दानवों में परस्पर बारह दिनपर्यन्त निरन्तर युद्ध हुआ था. देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं. अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं. उनमें से चार कुम्भ ही पृथ्वी पर होते हैं और आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं.


बारह की संख्या का महत्व इस प्रकार बनता है कि बारह बार आने पर १४४ होता है, जिसे महाकुंभ कहा जाता है हालांकि, शास्त्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता, जैसे अर्धकुंभ का भी नहीं मिलता. शास्त्रों में केवल पूर्ण–कुंभ का ही उल्लेख है.


इसका यह मतलब नहीं है कि अर्धकुंभ या महाकुंभ गलत हैं. १२ वर्ष बाद आने वाले कुंभ के 12 बार पूर्ण होने पर 144 वें वर्ष में जो कुंभ आता है, उसे महाकुंभ कहा गया है, तो इसमें कोई गलत बात नहीं है. यह सब सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों को एकत्र करने का माध्यम बनता हैं.


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