भगवान मृत्युंजय यानि शिव मनुष्य के सारे दुखों, परेशानियों और अहंकार का हरण कर लेते हैं. भगवान शिव के महामंत्र महामृत्युंजय का जाप करने से आयु वृद्धि, रोगमुक्ति और भय से मुक्ति मिलती है. जो लोग महामृत्युंजय मंत्र का जाप विपत्ति के समय करते हैं उन्हें यह एक दिव्य ऊर्जा के कवच के समान सुरक्षा प्रदान करता है. यह मंत्र भगवान शिव के लिए एक प्रार्थना है. महामृत्युंजय मंत्र का कंपन्न यानी वाईब्रेशन, हीन शक्तियों को खत्म करने वाला होता है.


ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंन्धिं पुष्टिवर्धनम्. 


उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥


हीन शक्तियां दो प्रकार की होती है एक वो जो मनुष्य स्वयं अपने भीतर विपरीत विचारधाराओं द्वारा निर्मित करता है और दूसरी वह जो दूसरों द्वारा निर्मित की जाती है. महामृत्युंजय मंत्र अपने वाइब्रेशन से इन हीन शक्तियों के प्रभाव को खत्म कर देता है.


विचार ऊर्जा का ही स्वरूप है. हीन विचार नकारात्मक ऊर्जा की उत्पत्ति करते हैं और उच्च विचार सकारात्मक ऊर्जा की उत्पत्ति करते है. हमारा मन एक प्रसारण केंद्र है इसमें उत्पन्न होने वाले विचारों के साथ ऊर्जा जुड़ी होती है. जब हम किसी व्यक्ति के विषय में विचार करते हैं तो उससे संबंधित ऊर्जा उस व्यक्ति की ओर प्रवाहित होने लगती है. इस प्रकार जब कोई व्यक्ति हीन विचार अपने मन में लाता है तो उससे संबंधित नकारात्मक ऊर्जा अमुक व्यक्ति की ओर प्रवाहित होने लगती है. महामृत्युंजय मंत्र का वाइब्रेशन इन दोनों प्रकार की हीन ऊर्जाओं से हमारी रक्षा करता है. इसको बचपन से ही करना चाहिए ताकि इस दिव्य मंत्र का कवच सदैव साथ रहें. ऐसी विचार धारा बिल्कुल गलत है कि यह मंत्र मृत्युतुल्य कष्ट में ही पढ़ा जाता है या फिर महामृत्युंज पढ़ने की सलाह देने का अर्थ होता है कि व्यक्ति के प्राण जाने वाले हैं. 


महामृत्युंजय मंत्र को समझें....


त्र्यम्बकं :- इसका अर्थ है तीन आंखों वाला, भगवान शिव की दो साधारण आंखें हैं पर तीसरी आंख दोनों भौहों के मध्य में है. तीसरी आंख है विवेक और अंर्तज्ञान की. ठीक उसी प्रकार जब मनुष्य विवेक की दृष्टि से देखता है तो उसका अनुभव कुछ और ही होता है. इसके जाप से विवेक की दृष्टि आने लगती है. व्यावहारिक भाषा से समझना है कि जब हम लोग टेंशन में होते हैं या कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हैं तो भौंह के मध्य में पेन या उंगली रख कर सोचते हैं. यह स्वाभाविक और शाश्वत है. यहां पर स्मरण पर जोर देते हुए स्पर्श किया जा रहा है वहीं पर तो तीसरी आंख है. यदि विवेक जाग्रत हो जाए तो हमारे में तीसरी आंख एक्टिव हो जाएगी.  


यजामहे:-  इसका अर्थ है कि भगवान के प्रति जितना पवित्र भाव पाठ व जाप के दौरान रखा जाएगा उतना ही उसका प्रभाव बढ़ेगा. ईश्वर के प्रति सम्मान और विश्वास रखते ही प्रकृति की ओर देखने का नजरिया बदलने लगेगा. जब भी हम पूजा करते हैं तो कुछ विपरीत शक्तियां पूजा से मन को हटाने की कोशिश में लगी रहती हैं, लेकिन अगर इन हीन शक्तियों के वेग को थाम लिया जाए तो प्राप्त होती है ईश्वरी कृपा.


आपने देखा होगा कि जैसे ही आप पूजा प्रारम्भ करते हैं एक दो दिन बाद उसमें व्यवधान आने लगते हैं. अब यह आंतरिक और बाहरी दोनों में से कोई भी हो सकता है. ऑफिस जाने की जल्दी हो या सांसारिक आवश्यक कार्य. लेकिन इन्हीं को साधते हुए जो अपनी पूजा डिस्टर्ब नहीं होने देता है वह यजामहे की ओर अग्रसर होने लगता है. 


सुगंन्धिं :- भगवान शिव सुगंध के पुंज हैं . जो मंगलकारी है उनका नाम ही शिव है. उनकी ऊर्जा को यहां सुगंध कहा गया है. जब व्यक्ति अहंकारी, अभिमानी और ईष्यालु होता है तो उसके व्यक्तित्व से दुर्गंध आती है. अवगुणों के समाप्त होते ही व्यक्तित्व से सुगंध उत्पन्न होने लगती है.


आपने महसूस किया होगा कि कुछ लोगों के साथ बैठने पर एक पॉजिटिव वाइब्ज आती हैं. अच्छा लगता है उनके बात करने का तरीका, उनकी प्रसन्नता और उनकी सकारात्मकता से हम भी चार्ज होते हैं. वहीं कुछ लोग दुखी होते हुए अपनी समस्याओं का ही बखान करते रहते हैं जिनसे मन नकारात्मक ओहरे में चला जाता है. 


पुष्टिवर्धनम् :- आध्यात्मिक पोषण और विकास की ओर जाना. अधिक मौन अवस्था में रहते हुए आध्यात्मिक विकास अधिक रह सकता है. संसार में ईर्ष्या, घृणा, अहंकार आदि के कीचड़ में रहते हुए कमल की तरह खिलना होगा. आध्यात्मिक विकास के बिना कमल नहीं बना जा सकता है.


हम लोग समाज, घर और ऑफिस में कई तरह के स्वभाव वालों से मिलते हैं और उनके साथ काम करते हैं. यहां यह ध्यान रखना चाहिए हर व्यक्ति के अंदर के गुणों से ही अपना संबंध होना चाहिए न कि उनकी निगेटिविटी से. जिस प्रकार केला खाते हैं और छिलका हटा देते हैं इसी प्रकार नकारात्मकता पर फोकस करने के बजाए पॉजिटिव चीजों पर फोकस करेंगे तभी तो पुष्टिवर्धनम् हो पाएंगे. 


उर्वारुकमिवबंधनान् :-  संसार में जुड़े रहते हुए भी भीतर से अपने को इस बंधन से छुड़ाना है. जिस प्रकार लौकी जब पक जाती है तो वह बाहर से लता से जुड़ी हुई दिखती है लेकिन वास्तव में वह लता को त्याग चुकी होती है. भगवान शिव मुझे संसार में रहते हुए आध्यात्मिक परिपक्वता प्रदान करें.


ऑफिस में इंक्रीमेंट और प्रमोशन न हो तो हिसाब लगाने लगते हैं कि दो साल से कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है उसी प्रकार क्या आध्यात्मिक, इंक्रीमेंट और प्रमोशन के विषय में चिन्तन करना चाहिए. रोटी कपड़ा मकान, परिवार आदि सभी की जिम्मेदारियों को निभाते हुए मोह से धीरे-धीरे स्वयं को अलग करते रहना चाहिए. 


मृर्त्योर्मुक्षीत मामृतात् :- आध्यात्मिक परिपक्वता आने के बाद मृत्यु के भय से मुक्ति मिल जाती है. हे प्रभु आपके अमृत्व से कभी हम वंचित न हो. जब यह भाव मजबूत हो जाएगा तब मृत्यु के भय से मुक्ति मिल जाएगी.


भय वहीं तक रहता है जहां तक आपको लगता है कि आप कुछ कर सकते हैं लेकिन जो चीज आपकी पकड़ से बाहर है उसको लेकर चिन्ता कैसी. जैसे आप कोई नया महंगा मोबाइल खरीदिए तो उससे मोह होता है. उसमें स्क्रीन गार्ड भी लगाते हैं कवर भी लगाते हैं यदि उसमें कोई खरोच लग जाए तो हृदय तक खरोच का असर होता है लेकिन जब आप उसका मोह रहित उपभोग करते हैं तो उसके खराब होने या टूटने का भय नहीं रहता है. एक साधारण भाषा में अक्सर कहा जाता है कि यह तो राज काज है.. इसको लेकर टेंशन क्यों.. पजेसिव ही मोह है. 


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