Mahabharat : कुंती का पूर्व नाम पृथा था और वह शूरसेन की पुत्री थी. मगर महाराज कुंतिभोज से अगाध मित्रता के चलते पिता शूरसेन ने उनके आग्रह पर कुंतिभोज को पृथा गोद दान कर दी. कुंतिभोज के यहां रहने की वजह से पृथा आगे चलकर 'कुंती' के तौर पर जानी हुईं और इनका विवाह राजा पांडु से हुआ.


कहा जाता है कि राजा शूरसेन के घर रहने के दौरान कुंती महल में आए महात्माओं, तपस्वियों की खूब सेवा करती थी. एक बार उनके यहां महर्षि दुर्वासा भी आए और कुंती की अति सेवा से गदगद हो उठे. उन्होंने कहा कि हे पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं. आज तुझे ऐसा मंत्र देता हूं, जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी, वह अपने अंश के रूप में तेरे पुत्र के तौर पर जन्म लेगा.


छोटी उम्र के कारण कुंती को इस मंत्र की वास्तविकता का अंदाजा नहीं था. एक दिन यूं ही उनके मन में आया कि क्यों न दुर्वासा के दिए मंत्र की परख की जाए. तब एकांत में बैठकर उन्होंने मंत्र का जाप करते हुए सूर्यदेव को याद किया, उसी समय सूर्यदेव प्रकट हो गए. सामने सूर्य देव को देखकर कुंती हैरान हो गईं, अब क्या करें.


सूर्यदेव ने पूछा कि देवी बताओ कि तुम मुझसे क्या चाहिए. तुम्हारी अभिलाषा जरूर पूरी करूंगा. कुंती बोलीं, 'हे देव! मुझे आपसे कोई अभिलाषा नहीं है. मैंने तो मंत्र की सत्यता परखने के लिए आपके नाम का जाप किया था.' यह सुनकर सूर्यदेव ने कहा, 'हे कुंती! दुर्वासा के मंत्र के चलते मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता, मैं तुम्हे अत्यंत पराक्रमी, दानशील पुत्र देता हूं. यह बोलकर सूर्यदेव अंतर्ध्यान हो गए.


कुछ ही दिन बाद अविवाहित कुंती गर्भवती हो गईं. लोकलाज के चलते वह ये बात किसी से नहीं कह सकीं. समय आने पर उनके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो जन्मजात कवच और कुंडल पहने हुए था, लेकिन कुंती ने उसे एक मंजूषा में रखकर आधी रात को गंगा में बहा दिया. दुर्वासा के मंत्रों की वजह से ही कुंती ने यमदेव से युधिष्ठिर, इंद्रदेव से अर्जुन और पवनदेव का स्मरण कर भीम को प्राप्त किया था. 


धृतराष्ट्र के सारथी को मिला बालक
मंजूषा में बहता हुआ वह बालक गंगा नदी के किनारे से जा लगा. संयोग से इसी किनारे पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने घोड़ों को पानी पिला रहा था. उनकी नजर शिशु पर पड़ी तो वह उसे घर ले आया. अधिरथ खुद निःसंतान था, ऐसे में उसकी पत्नी राधा ने बालक को अपना लिया. बालक के कान बहुत ही सुन्दर थे, इसलिए उसका नाम कर्ण रखा गया. सूत दंपति के घर लालन-पालन के चलते कर्ण को 'सूतपुत्र' और राधेय भी कहा गया.


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