Mahashivratri 2025, Nandi Avatar Katha: महादेव के अंश से अवतार लेने वाली नंदी जी के बारे मे आज लेखक अंशुल पांडे से जानेंगे शिव पुराण शतरुद्र संहिता अध्याय क्रमांक 6 में स्वयं नंदी अपने जन्म का वर्णन करते हैं.
शिलाद नामक एक धर्मात्मा मुनि थे. पितरों के आदेश से उन्होंने अयोनिज सुव्रत मृत्युहीन पुत्र की प्राप्ति के लिये तप करके देवेश्वर इन्द्र को प्रसन्न किया. परंतु देवराज इन्द्र ने ऐसा पुत्र प्रदान करने में अपने को असमर्थ बताकर सर्वेश्वर महाशक्तिसम्पन्न महादेव की आराधना करने का उपदेश दिया तब शिलाद भगवान् महादेव को प्रसन्न करने के लिये तप करने लगे.
उनके तपसे प्रसन्न होकर महादेव वहाँ पधारे और महासमाधिमग्न शिलाद को थपथपाकर जगाया तब शिलाद ने शिवका स्तवन किया और भगवान् शिव के उन्हें वर देनेको प्रस्तुत होनेपर उनसे कहा- 'प्रभो! मैं आपके ही समान मृत्युहीन अयोनिज पुत्र चाहता हूँ।' तब शिवजी प्रसन्न होकर मुनिसे बोले.
शिवजी ने कहा- तपोधन विप्र ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने, मुनियों ने तथा बड़े-बड़े देवताओं ने मेरे अवतार धारण करने के लिये तपस्याद्वारा मेरी आराधना की थी, इसलिये मुने ! यद्यपि मैं सारे जगत्का पिता हूँ, फिर भी तुम मेरे पिता बनोगे और मैं तुम्हारा अयोनिज पुत्र होऊँगा तथा मेरा नाम नन्दी होगा.
महादेव जी के चले जाने के पश्चात् महामुनि शिलाद ने अपने आश्रम में आकर ऋषियों से वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। कुछ समय बीत जाने के बाद जब यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ मेरे पिताजी यज्ञ करने के लिये यज्ञक्षेत्र को जोत रहे थे, उसी समय मैं शम्भु की आज्ञासे यज्ञके पूर्व ही उनके शरीर से उत्पन्न हो गया.
उस समय मेरे शरीर की प्रभा युगान्तकालीन अग्नि के समान थी. तब सारी दिशाओं में प्रसन्नता छा गयी और शिलाद मुनिकी भी बड़ी प्रशंसा हुई. उधर शिलाद ने भी जब मुझ बालक को प्रलयकालीन सूर्य और अग्नि के सदृश प्रभाशाली, त्रिनेत्र, चतुर्भुज, प्रकाशमान, जटामुकुटधारी, त्रिशूल आदि आयुधों से युक्त, सर्वथा रुद्ररूप में देखा, तब वे महान् आनन्द में निमग्न हो गये और मुझ प्रणम्य को नमस्कार करते हुए कहने लगे.
शिलाद बोले- सुरेश्वर ! चूँकि तुमने नन्दी नाम से प्रकट होकर मुझे आनन्दित किया है, इसलिये मैं तुम आनन्दमय जगदीश्वर को नमस्कार करता हूँ.
जब नंदी जी शिलाद की कुटिया में पहुँच गए, तब उन्होंने अपने उस रूपका परित्याग करके मनुष्यरूप धारण कर लिया. तदनन्तर शालंकायन-नन्दन पुत्रवत्सल शिलाद ने मेरे जातकर्म आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये. फिर पाँचवें वर्ष में शिलाद जी ने नंदी को सांगोपांग सम्पूर्ण वेदों का तथा अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन कराया.
सातवाँ वर्ष पूरा होनेपर शिवजी की आज्ञासे मित्र और वरुण नाम के मुनि मुझे देखने के लिये शिलाद जी के आश्रम पर पधारे. शिलाद मुनि ने उनकी पूरी आवभगत की. जब वे दोनों महात्मा मुनीश्वर आनन्दपूर्वक आसनपर विराज गये, तब नंदी की ओर बारंबार निहारकर बोले.
मित्र और वरुणने कहा- 'तात शिलाद ! यद्यपि तुम्हारा पुत्र नन्दी सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थों का पारगामी विद्वान् है, तथापि इसकी आयु बहुत थोड़ी है. हमने बहुत तरह से विचार करके देखा, परंतु इसकी आयु एक वर्ष से अधिक नहीं दीखती।' उन विप्रवरों के यों कहनेपर पुत्रवत्सल शिलाद नन्दी को छातीसे लिपटाकर दुःखार्त हो फूट-फूटकर रोने लगे.
तब पिता और पितामह को मृतक की भाँति भूमिपर पड़ा हुआ देख नन्दी शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके प्रसन्नता–पूर्वक पूछने लगा -'पिताजी ! आपको कौन-सा ऐसा दुःख आ पड़ा है, जिसके कारण आपका शरीर काँप रहा है और आप रो रहे हैं? आपको वह दुःख कहाँसे प्राप्त हुआ है, मैं इसे ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ.'
पिता ने कहा- बेटा ! तुम्हारी अल्पायु के दुःख से मैं अत्यन्त दुःखी हो रहा हूँ (तुम्हीं बताओ) मेरे इस कष्टको कौन दूर कर सकता है? मैं उसकी शरण ग्रहण करूँ.
पुत्र बोला- पिताजी ! मैं आपके सामने शपथ करता हूँ और यह बिलकुल सत्य बात कह रहा हूँ कि चाहे देवता, दानव, यम, काल तथा अन्यान्य प्राणी- ये सब-के सब मिलकर मुझे मारना चाहें, तो भी मेरी बाल्यकाल में मृत्यु नहीं होगी, अतः आप दुःखी मत हों.
पिताने पूछा- मेरे प्यारे लाल ! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है अथवा तुम्हें कौन-सा ऐसा ज्ञान, योग या ऐश्वर्य प्राप्त है, जिसके बलपर तुम इस दारुण दुःख को नष्ट कर दोगे ?
पुत्रने कहा-तात ! मैं न तो तपसे मृत्यु को हटाऊँगा और न विद्यासे. मैं महादेवजी के भजन से मृत्यु को जीत लूँगा, इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है. यों कहकर नंदी सिर झुकाकर पिताजी के चरणों में प्रणाम किया और फिर उनकी प्रदक्षिणा करके, उत्तम वनकी राह ली.
वन में जाकर नंदी एकान्त स्थान में अपना आसन लगाया और उत्तम बुद्धि का आश्रय लेकर उग्र तपमें प्रवृत्त हुए, जो बड़े-बड़े मुनियों के लिये भी दुष्कर था. उस समय मैं नदी के पावन उत्तर तटपर सुदृढ़ रूप से ध्यान लगाकर बैठ गया और एकाग्र तथा समाहित मन से अपने हृदयकमल के मध्यभाग में तीन नेत्र, दस भुजा तथा पाँच मुखवाले शान्ति–स्वरूप देवाधिदेव सदाशिव का ध्यान करके रुद्र मन्त्र का जप करने लगे. तब उस जप में नंदी को तल्लीन देखकर चन्द्रार्धभूषण परमेश्वर महादेव प्रसन्न हो गये और उमासहित वहाँ पधारकर प्रेम पूर्वक बोले.
शिव जी ने कहा- 'शिलादनन्दन ! तुमने बड़ा उत्तम तप किया है. तुम्हारी इस तपस्या से संतुष्ट होकर मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ. तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह माँग लो.' महादेव जी के यों कहने पर नंदी सिर के बल उनके चरणों में लोट गया और फिर बुढ़ापा तथा शोक का विनाश करने वाले की स्तुति करने लगे.
तब परम कष्टहारी वृषभध्वज परमेश्वर शिव ने नंदी को परम भक्तिसम्पन्न नन्दी को जिस के नेत्रों में आँसू छलक आये थे और जो सिर के बल चरणोंमें पड़ा था, अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर उठा लिया और शरीरपर हाथ फेरने लगे. फिर वे जगदीश्वर गणाध्यक्षों तथा हिमाचल–कुमारी पार्वती देवी की ओर दृष्टिपात करके नंदी की ओर कृपादृष्टि से देखते हुए यों कहने लगे- 'वत्स नन्दी ! उन दोनों विप्रों को तो मैंने ही भेजा था.
महाप्राज्ञ ! तुम्हें मृत्यु का भय कहाँ; तुम तो मेरे ही समान हो. इसमें तनिक भी संशय नहीं है. तुम अमर, अजर, दुःखरहित, अव्यय और अक्षय होकर सदा गणनायक बने रहोगे तथा पिता और सुहृद्वर्गसहित मेरे प्रियजन होओगे. तुम में मेरे ही समान बल होगा. तुम नित्य मेरे पार्श्वभाग में स्थित रहोगे और तुमपर निरन्तर मेरा प्रेम बना रहेगा. मेरी कृपा से जन्म, जरा और मृत्यु तुमपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे.'
यों कहकर कृपा–सागर शम्भु ने कमलों की बनी हुई अपनी शिरोमाला को उतारकर तुरंत ही नंदी के गले में डाल दिया. उस शुभ माला के गलेमें पड़ते ही नंदी तीन नेत्र और दस भुजाओं से सम्पन्न हो गया तथा द्वितीय शंकर-सा प्रतीत होने लगा. तदनन्तर परमेश्वर शिव ने नंदी का हाथ पकड़कर पूछा- 'बताओ, अब तुम्हें कौन-सा उत्तम वर दूँ?'
फिर उन वृषध्वज ने अपनी जटा में स्थित हार के समान निर्मल जल को हाथमें ले 'तुम नदी हो जाओ' यों कहकर उसे छोड़ दिया। तब वह जल उत्तम ढंग से बहनेवाली, स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, महान् वेगशालिनी, दिव्य रूपा पाँच सुन्दर नदियों के रूपमें परिवर्तित हो गया। उनके नाम हैं-जटोदका, त्रिस्त्रोता, वृषध्वनि, स्वर्णोद का और जम्बूनदी. यह पंचनद शिव के पृष्ठभाग की भाँति परम शुभ है.
महेश्वर के निकट इसका नाम लेने से यह परम पावन हो जाता है. जो मनुष्य पंचनदपर जाकर स्नान और जप करके परमेश्वर शिवका पूजन करता है, वह शिवसायुज्य को प्राप्त, होता है- इसमें संशय नहीं है. तत्पश्चात् शम्भुने उमासे कहा- 'अव्यये ! मैं नन्दीका अभिषेक करके इसे गणाध्यक्ष बनाना चाहता हूँ! इस विषयमें तुम्हारी क्या राय है?'
तब उमा बोलीं- देवेश ! आप नन्दी को गणाध्यक्ष पद प्रदान कर सकते हैं; क्योंकि परमेश्वर ! यह शिलादनन्दन मेरे लिये पुत्र-सरीखा है, इसलिये नाथ! यह मुझे बहुत ही प्यारा है. तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने अपने अतुल बलशाली गणों को बुलाकर उनसे कहा.
शिवजी बोले-गणनाय को ! तुम सब लोग मेरी एक आज्ञा का पालन करो. यह मेरा प्रिय पुत्र नन्दीश्वर सभी गणनाय कों का अध्यक्ष और गणोंका नेता है; इसलिये तुम सब लोग मिल कर इसका मेरे गणों के अधिपतिपद पर प्रेमपूर्वक अभिषेक करो. आज से यह नन्दीश्वर तुमलोगों का स्वामी होगा.
शंकर जी के इस कथन पर सभी गणनाय कों ने 'एवमस्तु' कहकर उसे स्वीकार किया और वे सामग्री जुटाने में लग गये. फिर सब देवताओं और मुनियों ने मिलकर मेरा अभिषेक किया. इसप्रकार नंदी महा–कैलाश के गणाध्यक्ष बने
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