Meditation: मानव-शरीर पंचतत्व से बना हुआ. यह ब्रह्माण्ड का ही एक छोटा स्वरूप है. कहा गया है कि यत पिण्डे तत् ब्रह्माणे यानी जो शरीर में है वहीं ब्रह्माण्ड में है. ईश्वर की असीम कृपा से जन्म के साथ ही श्वांस प्रारम्भ होती है.एक तरीके से स्वरोदय का ज्ञान मिलता है. यह विशुद्ध वैज्ञानिक आध्यात्मिक ज्ञान-दर्शन है, प्राण ऊर्जा है, विवेक शक्ति है. स्वर-साधना से ही हमारे ऋषि-मुनियों ने अनुभव से भूत, भविष्य और वर्तमान को जाना है. अब यह मनुष्य के हाथों में है कि इस श्वांस विज्ञान का कितना उपयोग और उपभोग करता है.
मनुष्य की नासिका में दो छिद्र हैं, दाहिना और बायाँ. दोनों छिद्रों में से केवल एक छिद्र से ही वायु का प्रवेश और बाहर निकलना होता रहता है. दूसरा छिद्र बन्द रहता है. जब दूसरे छिद्र से वायु का प्रवेश और बाहर निकलना प्रारम्भ होता है तो पहला छिद्र स्वत: ही स्वाभाविक रूप से बंद हो जाता है अर्थात् एक चलित रहता है तो दूसरा बंद हो जाता है. इस प्रकार वायु वेग के संचार की क्रिया श्वास-प्रश्वास को ही स्वर कहते हैं. स्वर ही साँस है. सांस ही जीवन का प्राण है. स्वर का निरन्तर चलना ही जीवन है. स्वर का बन्द होना मृत्यु का प्रतीक है. जब दाहिनी नासिका से श्वास लेते हैं तो मस्तिष्क का बायां भाग एक्टिवेट हो जाता है. इसी प्रकार जब बायी ओर से श्वास लेते हैं तब मस्तिष्क का दाहिना भाग एक्टिव हो जाता है, इसलिए प्राणायाम किया जाता है. प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य श्वास का लयबद्ध होना और श्वास का संचय होना. जैसे अनोम विलोम में श्वास यदि 4 सेकेंड में अंदर लेते हैं फिर 8 सेकेंड रोकते हैं और फिर 4 सेकेंड में छोड़ते हैं.
योगी व्यक्ति धीरे धीरे रोकने वाला समय बढ़ाता जाता है और यह बढ़ते बढ़ते समाधि हो जाती है इसलिए ऋषि मुनियों की आयु कई सौ वर्ष तक हो सकती थी. आयु का निर्धारण साल, महीना , दिन समय से नहीं है बल्कि श्वास से है. हर जीव को जन्म के साथ ही सांसों का कोटा अलॉट हो जाता है. इसीलिए भोगी की आयु कम और योगी अधिक बताई जाती है. इसके पीछे भी श्वास है. जितनी तेज श्वास चलेगी उतना श्वास का बैंक-बैलेंस भी कम होता जाएगा. जीव जंतुओं में इसी लिए कछुए की आयु बहुत होती है. साधारणतया स्वर प्रतिदिन एक-एक घंटे के बाद दायाँ से बायां और बायां से दायाँ बदलते हैं, इसलिए एक स्वस्थ व्यक्ति दिन-रात अर्थात् 24 घंटे में 21600 बार श्वास लेता है. नासिका के दाहिने छिद्र को दाहिना स्वर या सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी कहते हैं और बायें छिद्र को बायाँ स्वर या चन्द्र स्वर या इडा नाड़ी कहते हैं.
स्वरों के आधार पर बहुत चीजों का निर्धारण किया जाता है. पुरुषों के लिए दाहिना स्वर और महिलाओं के लिए बायां स्वर शुभ है, इसलिए किसी शुभ कार्य को करते समय या किसी महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय अपने चलते हुए स्वर को अवश्य देख लेना चाहिए. स्वर का पता लगाने के लिए हथेली को नाक के आगे लगाते हुए श्वास बाहर फेंके जिस नासिका से तेज हवा निकले वही स्वर चल रहा है. कभी-कभी दोनों छिद्रों से वायु-प्रवाह एक साथ निकलना प्रारम्भ हो जाता है, जिसे सुषुम्ना नाड़ी-स्वर कहते हैं. इसे उभय-स्वर भी कहते हैं. लेकिन ऐसा बहुत कम समय के लिए होता है. ऋषि मुनियों ने स्वरों को साधकर सातों चक्रों को जाग्रत कर रखा था जिससे उनको घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता था यानी इंट्यूशन हाई रहता था. यह दिव्य लोग व्यक्ति देख कर ही उसके भूत भविष्य और वर्तमान को देख लेते हैं. सुबह उठते समय यदि दाहिना स्वर चल रहा हो तो आप दाहिने पैर को बढ़ा कर उतरें और यदि बाया चल रहा हो तो बाय पैर को पहले उतारें. वैसे पुरुषों का दाहिना स्वर चलना शुभ होता है और महिलाओं का बायां. अच्छा तो यह होगा कि पुरुष दाहिने और महिला बाय स्वर का कुछ मिनट इंतजार करके उतरें.
बायां स्वर यानी चन्द्रस्वर में सभी प्रकार के स्थिर, सौम्य और शुभ कार्य करने चाहिए. यह स्वर साक्षात् देवी स्वरूप है. यह स्वर शीतल प्रकृति का होने से गर्मी और पित्त जनित रोगों से रक्षा करता है. दाहिना स्वर यानी सूर्य स्वर में सभी प्रकार के चलित, कठिन कार्य करने से सफलता मिलती है. यह स्वर साक्षात् शिव स्वरूप है. उष्ण यानि गर्म प्रकृति का होने से सर्दी, कफ जनित रोगों से रक्षा करता है. इस स्वर में भोजन करना, औषधि बनाना, विद्या और संगीत का अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं. दोनों स्वर चलना यानि सुषुम्ना स्वर साक्षात् काल स्वरूप है. इसमें ध्यान, धारणा, समाधि, प्रभु-स्मरण और कीर्तन श्रेयस्कर है. अब एक बात आप समझ लीजिए कि जब भी आपकी सुषुम्ना स्वर चल रहा हो उस समय अपने ईश्वर का नाम ध्यान अवश्य करें.
स्वर-परिवर्तन की विधियां- जो स्वर चलाना चाहिए, उसके विपरीत करवट बदलकर उसी हाथ का तकिया बनाकर लेट जाएं. थोड़ी देर में स्वर बदल जायगा. जैसे यदि सूर्य स्वर चल रहा है और चन्द्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाएं. अनुलोम-विलोम, नाड़ीशोधन, प्राणायाम, पूरक, रेचक, कुम्भक, आसन तथा वज्रासन से भी स्वर-परिवर्तन हो जाता है. स्वर-परिवर्तन में मुँह बन्द रखना चाहिये. नासिका से स्वर-साधना करे. नियमित रूप से प्राणायाम करना चाहिए इससे स्वर सही चलते हैं और व्यक्ति स्वस्थ रहते हुए दीर्घायु होता है.
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