Mirza Ghalib Shayari: शायरी नहीं शब्दों की जादूगरी करते थे गालिब, जानें मिर्जा गालिब की कुछ चुनिंदा शेर
Mirza Ghalib Shayari: मिर्जा गालिब की नज्में और शेरो-शायरी ने इश्क की तहजीब दुनिया को दी है. मिर्जा गालिब अपनी शायरी से आज भी नई पीढ़ी के बीच जिंदा हैं.
Mirza Ghalib Birth Anniversary, Mirza Ghalib Shayari in Hindi: मिर्जा गालिब ने लिखा था- हुई मुद्दत कि ‘गालिब' मर गया पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता!’. जाहिर सी बात है शेरो शायरी की बात हो और मिर्जा गालिब का जिक्र न हो भला ऐसा हो ही नहीं सकता. जब तक दुनिया में इश्क रहेगा तब तक गालिब लोगों के दिलों जिंदा रहेंगे. अगर यूं कहें कि इश्क गालिब से ही शुरू होता है तो यह कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी. यही कारण है कि इश्क पुराना हो या नया गालिब के नज्म और शेर कभी पुराने नहीं होते और आज भी नई पीढ़ी के बीच गालिब की शायरी जिंदा है.
असदउल्लाह बेग खान जिन्हें हम मिर्जा गालिब के नाम से जानते हैं, शेरो शायरी की दुनिया में गालिब का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता था. गालिब शब्दों के साथ जादूगरी करना जानते थे. गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था. उनके द्वारा लिखी शायरियां आज भी युवाओं, नई पीढ़ी और प्रेमी जोड़ों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं. जानते हैं मिर्जा गालिब की कुछ ऐसे ही चुनियां शायरियों के बारे में..
इम्तहां..
यही है आजमाना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के खुश रखने को 'गालिब' ये खयाल अच्छा है
सहर..
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि खुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हां मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना जमाने ने
एक तुम हो जिसे खबर न हुई
गुफ्तगू..
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ़्तगू क्या है
न शोले में ये करिश्मा न बर्क में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदखू क्या है
उम्मीद..
रही न ताकत-ए-गुफ्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरजू क्या है
बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "गालिब" की आबरू क्या है
दीवार..
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकल
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी हम कम निकले..
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर–ए–नीम–कश कोये खलिश कहां से होती जो जिगर के पार होता..
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछोहजर करो मिरे दिल से कि उस में आग दबी है..
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदालड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं....
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