रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी अपने अवगुणों को विराम देते हुए रामचरित्र में उतरने की सलाह देते हैं.  जो लोग बाहर से अच्छे बनते हैं और भीतर कपटी होते हैं कलियुग में पापी होते हैं. इसलिए तुलसी बाबा कहते हैं कि राम नाम भजते हुए वेदमार्ग पर रहना चाहिए. 


जे जनमे कलिकाल कराला । 
करतब बायस बेष मराला ⁠।⁠। 
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । 
कपट कलेवर कलि मल भाँड़े ⁠।⁠। 


जो कठिन यानि कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान और वेष हंस के समान है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग में पापों के पात्र समान हैं.


बंचक भगत कहाइ राम के । 
किंकर कंचन कोह काम के ⁠।⁠। 
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । 
धींग धरमध्वज धंधक धोरी ⁠।⁠। 


जो श्री राम जी के भक्त कहला कर लोगों को ठगते हैं, जो धन लोभ, क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो झूठ में ही राम-राम भजने  वाले, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दंभी और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है. 


जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । 
बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ⁠।⁠। 
ताते मैं अति अलप बखाने । 
थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ⁠।⁠। 


यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार नहीं पाऊँगा. इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है. बुद्धिमान् लोग थोड़े ही में समझ लेंगे.  


समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी । 
कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ⁠।⁠। 
एतेहु पर करिहहिं जे असंका । 
मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका ⁠।⁠। 


मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा. इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धिहीन हैं. 


कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । 
मति अनुरूप राम गुन गावउँ ⁠।⁠। 
कहँ रघुपति के चरित अपारा । 
कहँ मति मोरि निरत संसारा ⁠।⁠।


मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ अपनी बुद्धि के अनुसार श्री राम जी के गुणगान गाता हूँ. कहाँ श्री रघुनाथ जी का अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि.


जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । 
कहहु तूल केहि लेखे माहीं ⁠।⁠। 
समुझत अमित राम प्रभुताई । 
करत कथा मन अति कदराई ⁠।⁠। 


जिस हवा से सुमेरु-जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, तो उसके सामने रूई किस गिनती में है. श्री राम जी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है.


दोहा— ⁠


सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान ⁠। 
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ⁠।⁠।⁠


सरस्वती जी, शेष जी, शिव जी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब नेति-नेति कहकर यानि पार नहीं पाकर ऐसा नहीं, ऐसा नहीं कहते हुए सदा जिनका गुणगान किया करते हैं. 


सुमिरत सारद आवति धाई, सरस्वती जी ब्रह्म लोक से दौड़ी चली आती है रामचरित के तलाब में डुबकी लगाने


मंगल भवन अमंगल हारी, जीवन में जब हो रहा हो सब अमंगल तो राम नाम जपने से होता है मंगल