रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी ने अच्छे और बुरे लोगों के गुणों में क्या अंतर होता है, इसको बहुत ही सुंदरता के साथ उदाहरण देकर बताया है. जो पाखण्डी एवं ठग साधु  के रूप में संसार में ढोल बजाते हुए यश बटोरते हैं उनका अंत में ढोल फट कर पोल खुल जाती है, यही शाश्वत है.
 
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। 
साधु असाधु सुजाति कुजाती।। 
दानव देव ऊँच अरु नीचू।
अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।। 
माया ब्रह्म जीव जगदीसा।
लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।। 
कासी मग सुरसरि क्रमनासा।
मरु मारव महिदेव गवासा।।
सरग नरक अनुराग बिरागा। 
निगमागम गुन दोष बिभागा।। 
 
दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुन्दर जीवन-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य, ये सभी पदार्थ ब्रह्माकी सृष्टिमें हैं. वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है .
 
दोहा—
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। 
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।। 
 
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है संत को हंस की उपमा देने का भाव यह है कि जैसे दूध में जल मिला हो तो पहचानने वाले बता देंगे कि इसमें कितना जल है और कितना दूध, इसी तरह वेद शास्त्र बताते हैं कि प्रत्येक वस्तु में क्या गुण है और क्या दोष परंतु जैसे दूध में से जल निकालकर दूध-दूध हंस पी लेता है,ऐसा विवेक हंस को छोड़कर और किसी में नहीं है, वैसे ही दोष को छोड़कर केवल गुण  सब में से निकालकर ग्रहण कर लेना, यह केवल संत ही का काम है, दूसरे में यह सामर्थ्य नहीं. 
 
अस बिबेक जब देइ बिधाता।
तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।। 
काल सुभाउ करम बरिआईं।
भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं।। 
 
विधाता जब इस प्रकार का हंस जैसा विवेक देते हैं तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में मन लगता है. काल-स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं.
 
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। 
दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं।। 
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू।
मिटइ न मलिन सुभाउ असंगू।। 
 
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संगति पाकर भलाई करते हैं परन्तु उनका कभी मलिन स्वभाव नहीं मिटता.
 
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ।
बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ।। 
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। 
कालनेमि जिमि रावन राहू।। 
 
जो सुंदर वेष धारण किए हुए भीतर से ठग हैं, उनके सुंदर वेष को देखकर इस जगत में उनके प्रताप से उनको पूजा जाता है लेकिन अंत में उनका कपट खुल जाता है जैसे  कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ.
 
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। 
जिमि जग जामवंत हनुमानू।। 
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। 
लोकहुँ बेद बिदित सब काहू।। 
 
बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत्‌ में जाम्बवान् और हनुमान जी का हुआ. बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं.


गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। 
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।। 
साधु असाधु सदन सुक सारीं।
सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं।। 
 
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है.  साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं.
 
धूम कुसंगति कारिख होई। 
लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।। 
सोइ जल अनल अनिल संघाता। 
होइ जलद जग जीवन दाता।।
 
कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ सुसंग से सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है.
 
दोहा—
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। 
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग।।
 
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं. चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं.
 
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह। 
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।। 
 
महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है एक का नाम शुक्ल पक्ष और दूसरे का नाम कृष्ण पक्ष रख दिया. एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया.



जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं, भले कमल की तरह देते है सुख, बुरे जोंक की तरह पीते है खून


पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें, दुष्ट दूसरों को उजाड़ने में होते है खुश, दूसरों का सुख देख कर होते है दुखी