मानस मंत्र: सुमिरत सारद आवति धाई, सरस्वती जी ब्रह्म लोक से दौड़ी चली आती है रामचरित के तलाब में डुबकी लगाने
श्रीरामचरितमानस ग्रंथ की रचना तुलसीदास जी अनन्य भगवद् भक्त के द्वारा की गई है. मानस मंत्र के अर्थ को समझते हुए मानस की कृपा से भवसागर पार करने की शक्ति प्राप्त करते हैं -
रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी ने रामचरित के गुणों की महत्ता को बताते हैं और तुलना श्यामा गाय के दूग्ध से करते हुए सुजान लोग इसका पान करते हैं देवी-देवता रामचरित के सरोवर में स्नान को सदैव आतुर रहते हैं.
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।
श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उजला है और बहुत गुणकारी होता है. इसलिए सब लोग उसे पीते हैं. इसी तरह गँवारी भाषा में होने पर भी श्री सीता-राम जी के यश को बुद्धिमान् लोग बड़े चावसे गाते और सुनते हैं.
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी।
अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ।।
नृप किरीट तरुनी तनु पाई ।
लहहिं सकल सोभा अधिकाई ।।
मणि, माणिक और मोती की जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती. राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं.
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं ।
पजहिं अनत अनत छबि लहहीं ।।
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई।
सुमिरत सारद आवति धाई ।।
सज्जन कहते हैं कि सुकवि की कविता और जगह लिखी जाती है और जगह शोभा पाती है.अर्थात् कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है. कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती जी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं .
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ ।
सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ।।
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी ।
गावहिं हरि जस कलि मल हारी ।।
सरस्वती जी को ब्रह्म लोक से आने में जो थकावट होती है वह करोड़ो उपाय करने के बाद भी समाप्त नहीं होती है वह तो रामचरित रूपी तलाब में नहाने से ही मिटती है.कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचार कर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं.
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना ।
सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ।।
हृदय सिंधु मति सीप समाना ।
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ।।
संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती जी सिर धुनकर पछताने लगती हैं कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आयी. बुद्धिमान् लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं.
जौं बरषइ बर बारि बिचारू ।
होहिं कबित मुकुतामनि चारू ।।
इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुन्दर कविता होती है.
दोहा—
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग ।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ।।
उन कविता रूपी मुक्ता मणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त होते हैं.
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