मानस मंत्र : रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी ने अपनी कविता के रस के विषय में बताया है और एक बार पुनः दुष्टों के मुख से दूषण निकलने को भी संतों का भुषण कहा है. उन्होंने यह भी कहा है कि जो केवल कविता को पसंद करते है परंतु  प्रभु श्री राम में प्रेम नहीं है उनको भी यह हास्य रस देकर सुख देगी.


खल परिहास होइ हित मोरा। 
काक कहहिं कलकंठ कठोरा।। 
हंसहि बक दादुर चातकही।
हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।। 


दुष्टों के हंसने से मेरा हित ही होगा मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं जैसे बगुले हंस पर और मेंढक पपीहे पर हँसते रहते  हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी पर हँसते हैं. इस तरह दुष्टों के मुख से जो दूषण निकलेंगे वह भी संतों के भूषण हो जाएंगे.


कबित रसिक न राम पद नेहू। 
तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।⁠। 
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। 
हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी।⁠। 


जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्र जी के चरणों में प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्य रस का काम देगी. प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं.


प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। 
तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी।⁠। 
हरि हर पद रति मति न कुतरकी। 
तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।⁠। 


जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी. जिनकी श्री हरि और श्री हर के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है, जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते उन्हें श्री रघुनाथ जी की यह कथा मधुर लगेगी. 


राम भगति भूषित जियँ जानी।
सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।⁠। 
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। 
सकल कला सब बिद्या हीनू।⁠। 


सज्जन गण इस कथा को अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे. मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ.


आखर अरथ अलंकृति नाना। 
छंद प्रबंध अनेक बिधाना।⁠। 
भाव भेद रस भेद अपारा। 
कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।⁠। 


नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं.


कबित बिबेक एक नहिं मोरें। 
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें।⁠।


इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझ में नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर सत्य कहता हूँ.


दो०—


भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक। 


सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक⁠।⁠।


मेरी रचना सब गुणों से रहित है इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है. उसे विचार कर अच्छी बुद्धि वाले पुरुष जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे.


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