तुलसीदास जी वंदना के क्रम में श्रीराम की सेना उपस्थित सभी सेवकों को प्रणाम करते हैं साथ ही ऋषि, मुनियों की वंदना करते हैं. श्रीराम एवं सीता जी से निर्मल बुद्धि की मांग करते हैं. आज हम लोग उनको समझते है और मानस का अध्ययन करते हैं. 


कपिपति रीछ निसाचर राजा । 
अंगदादि जे कीस समाजा।। 
बंदउँ सब के चरन सुहाए। 
अधम सरीर राम जिन्ह पाए।। 


वानरों के राजा सुग्रीव, रीछों के राजा जाम्बवान, राक्षसों के राजा विभीषण और अंगद आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुन्दर चरणों की मैं वन्दना करता हूं, जिन्होंने अधम यानी पशु और राक्षस आदि  शरीर में जन्म लेकर भी श्री रामचन्द्र जी की सेवा करते हुए उन्हें  प्राप्त कर लिया.


रघुपति चरन उपासक जेते। 
खग मृग सुर नर असुर समेते ।। 
बंदउँ पद सरोज सब केरे । 
जे बिनु काम राम के चेरे ।। 


पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्रीराम जी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरण कमलों की वन्दना करता हूं, जो श्रीरामजी की सेवा बिना किसी कामनाओं एवं लोभ के करते हैं. 

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। 
जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ।। 
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। 
करहु कृपा जन जानि मुनीसा।। 


शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरतीपर सिर टेक कर उन सबको प्रणाम करता हूं, हे मुनीश्वरो  आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिये.


जनकसुता जग जननि जानकी । 
अतिसय प्रिय करुनानिधान की ।। 
ताके जुग पद कमल मनावउँ । 
जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ।।



राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्र जी की प्रियतमा श्री जानकी जी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूं, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाउँ.


पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। 
चरन कमल बंदउँ सब लायक।। 
राजिवनयन धरें धनु सायक । 
भगत बिपति भंजन सुखदायक ।। 


फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमल नयन, धनुष-बाण धारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान् श्री रघुनाथ जी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूं.


गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। 
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।। 


जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में एक हैं, उन श्री सीता राम जी के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुखी बहुत ही प्रिय हैं.  


मानस मंत्र: भनिति मोरि सिव कृपां बिभाती, कपट हटाकर हित करने वाली होती है रामचरितमानस



मानस मंत्र: सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर, शत्रु भी वैर छोड़कर सुनते है रामचरित का गुणगान