रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी ने कहा है कि इस संसार में सब कुछ राम मय मान कर और जान कर सभी की वंदना की जब सब राम मय ही है तब देवता और दानव की वंदना करना भी उचित  है.
 
दोहा—
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। 
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।। 
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब। 
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब।।


जगत्‌ में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सब को राममय जानकर मैं उन सबके चरण कमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ.
 देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ.अब सब मुझपर कृपा कीजिये.
 
आकर चारि लाख चौरासी। 
जाति जीव जल थल नभ बासी।। 
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।। 
 
चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत्‌ को श्री सीताराम मय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ.
 
जानि कृपाकर किंकर मोहू। 
सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।। 
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। 
तातें बिनय करउँ सब पाहीं।।
 
मुझ को अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिये. मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसलिए मैं सबसे विनती करता हूँ.
 
 करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। 
लघु मति मोरि चरित अवगाहा।। 
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। 
मन मति रंक मनोरथ राऊ।। 
 
मैं श्री रघुनाथ जी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री राम जी का चरित्र अथाह है. इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात कुछ भी उपाय नहीं सूझता. मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है.
 
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। 
चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।। 
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
 
मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत्‌ में जुड़ती छाछ भी नहीं. सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर प्रेम पूर्वक सुनेंगे.
 
जौं बालक कह तोतरि बाता।
सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।। 
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। 
जे पर दूषन भूषनधारी।।
 
जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मनसे सुनते हैं. किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे लगते हैं.
 
निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका।⁠। 
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। 
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।⁠। 
 
रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत्‌ में बहुत नहीं हैं. 
 
जग बहु नर सर सरि सम भाई। 
जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।⁠। 
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।
 देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।⁠। 
 
हे भाई जगत्‌ में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं. समुद्र-सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर दूसरोंका उत्कर्ष देखकर उमड़ पड़ता है. 
 
दोहा—
भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास। 
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास⁠।⁠।⁠ 
 
मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हंसी उड़ाएंगे.


दुख सुख पाप पुन्य दिन राती, विषम परिस्थिति में घबराना नहीं चाहिए यह सब दिन रात की तरह आते जाते रहते हैं


जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं, भले कमल की तरह देते है सुख, बुरे जोंक की तरह पीते है खून