Muharram 2020 : आज मुहर्रम का 10वां दिन, जानिए क्या है इसका और कर्बला की जंग का इतिहास
आज मुहर्रम का दसवां दिन है, इस दिन को हजरत इमाम हुसैन ने कर्बला में अपने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी. इस्लाम में इस दिन को शोक के तौर पर मनाया जाता है.
नई दिल्लीः इस्लामिक कैलेंडर का नया साल यानी मुहर्रम का महीना शुरू हो गया है. मुहर्रम को इस्लामिक कैलेंडर में पहले महीने के रूप में देखा जाता है. इस्लाम में इसी महीने से नया साल शुरू होता है. इस्लाम के पहले महीने में ही हजरत इमाम हुसैन की शहादत हो गई थी. मुहर्रम महीने के 10 वें दिन रोज-ए-आशुरा कहा गया है. इसी दिन हजरत इमाम हुसैन ने कर्बला में अपने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी. इस्लाम में इस दिन को शोक के तौर पर मनाया जाता है. वहीं मुहर्रम का पूरा महीना गम के महीने के तौर पर देखा जाता है.
इस्लाम के अनुयाई इस दिन इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए ताजिये और जुलूस निकालते हैं. इस्लाम में ताजिए सिर्फ शिया समुदाय के मुस्लिम ही निकालते हैं, सुन्नी समुदाय तजियादारी नहीं करते हैं. वहीं इस बार कोरोना संक्रमण के कारण इस बार मुहर्रम के दिन ताजिए और जुलूस निकालने पर प्रतिबंध लगा हुआ है. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में मुहर्रम का जुलूस निकालने की अनुमति मांग रही याचिका पर सुनवाई करते हुए इस पर आज्ञा नहीं दी है.
ताजिया का इतिहास
मुहर्रम महीने के 10 वें दिन हजरत इमाम हुसैन की शहादत वाले दिन ताजिया निकाले जाते हैं. कहा जाता है कि इराक में इमाम हुसैन की दरगाह से मिलता जुलता एक ढांचा बनाया जाता है, इसे ही ताजिया कहा जाता है. इतिहासकारों का मानना है कि ताजिया बनाने की परंपरा भारत से शुरू हुई थी. भारत में इसकी शुरुआत बादशाह तैमूर लंग ने की थी.
उन्होंने इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शाहदत की याद करते हुए मुहर्रम के 10 वें दिन ताजिया निकाले जाने की प्रथा की शुरुआत की थी. इस्लाम में मुहर्रम के पहले दिन चांद निकलने के साथ ही ताजिया रखा जाता है. वहीं मुहर्रम के दसवें दिन इसे कर्बला में दफन कर दिया जाता है.
कर्बला की जंग
इतिहासकारों का मानना है कि 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. इतिहासकारों के अनुसार यह जंग, बुराई के खिलाफ इंसाफ दिलाने के लिए लड़ी गई थी. बताया जाता है कि इस्लाम धर्म के पवित्र मदीना से कुछ दूर 'शाम' में मुआविया शासक की मौत के बाद उनका बेटा यजीद राजा बना था. जिसमें इस्लामी मूल्यों की कोई समझ नहीं थी.
जनता पर अपने विश्वास को बनाए रखने के लिए यजीद ने इमाम हुसैन से उनका समर्थन करने के लिए कहा, जिसे इमाम हुसैन ने सिरे से खारिज कर दिया था. इसके बाद इमाम हुसैन हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ कर इराक की ओर चल दिए थे. लेकिन रास्ते में ही यजीद की सेना ने उन्हें रोक दिया.
3 दिनों तक रहे भुखे प्यासे
रोके जाने के दौरान इमाम हुसैन साहब को यजीद का समर्थन करने या युद्ध करने के लिए कहा गया. उस वक्त इमाम हुसैन साहब के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही शामिल थे. इमाम हुसैन युद्ध के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने किसी तरह 7 दिन तक युद्ध को टाले रखा. जिसके बाद उनके पास रखा सारा अनाज और पानी खत्म हो गया.
इमाम हुसैन और उनके साथी 3 दिन तक भूखे और प्यासे रहे. जिसके बाद मुहर्रम के दसवें दिन युद्ध के दौरान एक-एक कर इमाम हुसैन के सभी साथी शहीद हुए. अंत में दसवें मुहर्रम की दोपहर की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद युद्ध के मैदान में गए और मारे गए. इस जंग में बीमार होने के कारण इमाम हुसैन का एक बेटे जैनुलआबेदीन जिंदा बचे थे. इमाम हुसैन की इसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम मनाया जाता है.
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