Nag Panchami 2024: सर्प (Snake) प्रजाति का हिंदू धर्म (Hindu Dharm) में बहुत महत्त्व होता है. शिव जी (Shiv ji) के कंठ अभूषण नागराज वासुकि (Vasuki) है तो वहीं विष्णु भगवान (Lord Vishnu) की शैय्या नागराज शेषनाग है. हमारे यहां नागों की पूजा की जाती है और गलती से भी आपसे सर्प की हत्या हो जाए आप पर काल सर्प दोष लग जाता है, जिसका निवारण सहज नहीं है.


लोग अच्छा दिखने के लिए कंठ में महंगे अभूषण धारण करते हैं लेकिन शिव जी ने अपना आभूषण एक सर्प (सांप) को चुना. जोकि समाज में निंदित और उपेक्षित भी. सभी लोग सर्प से डरते हैं और यही डर भगवान शिव जी दूर कर रहे हैं वासुकि को अपना कंठ हार बनाकर. शिवजी अपने सभी भक्तों को यह सीखा रहे है कि जब मैं हूं तो भय किस बात की, कोई भी पशु या पशु–तुल्य व्यक्ति अपको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता. नागपंचमी के पर्व में नागों को दूध पिलाने की प्रथा है ताकि हमारा भय दूर हो और हम जीव-जंतु और पशुओं की सेवा करें.


नागपंचमी के बारे शास्त्र क्या कहते हैं? (Nag Panchami 2024 About Shastra)


वराह पुराण (Varaha Purana) अध्याय क्रमांक 24 के अनुसार, भगवान वाराह अपने मुख से नागपंचमी की कथा (Nag Panchami Katha) बताते हैं. एक समय की बात है, मरीचि ब्रह्माजी के प्रथम मानस पुत्र हुए. उनके पुत्र कश्यप जी हुए. मन्द मुसकान वाली दक्ष की पुत्री कद्रू उनकी भार्या हुई. उससे कश्यपजी के अनन्त, वासुकि, महाबली कम्बल, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शङ्ख, कुलिक और पापराजिल आदि नामों से विख्यात अनेक सर्प–पुत्र हुए. ये प्रधान सर्प कश्यप जी के पुत्र हैं.


बाद में इन सर्पों की संतानों से यह सारा संसार ही भर गया. वे बड़े कुटिल और नीच कर्म में रत थे. उनके मुंह में अत्यन्त तीखा विष भरा था. वे मनुष्यों को अपनी दृष्टिमात्र से या काटकर भी भस्म कर सकते थे. उनका दंश शब्द की ही तरह तीव्रगामी था. उससे भी मनुष्यों की मृत्यु हो जाती. इस प्रकार प्रजा का प्रतिदिन दारुण संहार होने लगा, यों अपना भीषण संहार देखकर प्रजा वर्ग एकत्र होकर सबको शरण देने में समर्थ परम प्रभु भगवान ब्रह्मा जी की शरण में गये.


इसी उद्देश्य को सामने रखकर प्रजाओं ने कमलपर प्रकट होने वाले ब्रह्मा जी से कहा- "प्रभू! आपमें असीम शक्ति है, इन तीखे दांतों वाले सर्पों से आप हमारी रक्षा करें. इनकी दृष्टि पड़ते ही मनुष्य तथा पशुसमूह भस्म हो जाते हैं- यह प्रति दिन की बात हो गयी है. इन सर्पों द्वारा आपकी सृष्टि का संहार हो रहा है. आप इसकी जानकारी प्राप्त कर ऐसा प्रयत्न करें कि यह दुःखद परिस्थिति शीघ्र दूर हो जाए."


ब्रह्माजी बोले- "प्रजापालो! तुम भय से घबड़ा गए हो. मैं तुम्हारी रक्षा अवश्य करूंगा. पर अब तुम सभी अपने-अपने स्थानपर लौट जाओ.


अव्यक्त मूर्ति ब्रह्मा जी के इस प्रकार कहने पर वे प्रजाएं वापस आ गईं. उस समय ब्रह्मा जी के मन में असीम क्रोध उत्पन्न हो गया. उन्होंने वासुकि समेत सभी प्रमुख सर्पों को बुलाया और उन्हें शाप दे दिया. ब्रह्माजीने कहा- "नागो ! तुम मेरे द्वारा उत्पन्न किए हुए मनुष्यों की मृत्यु के कारण बन गए हो. अतः आगे स्वायम्भुव मन्वन्तर में तुम्हारा अपनी ही माता के शापद्वारा घोर संहार होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है."


जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार उन श्रेष्ठ सर्पों से कहा तब सर्पों के शरीर में भय से कंपकंपी मच गयी. वे उन प्रभु के पैरों पर गिर पड़े और ये वचन कहे. नाग बोले- "भगवन् ! आपने ही तो कुटिल जाति में हमारा जन्म दिया है. विष उगलना, दुष्टता करना, किसी वस्तु को देखकर उसे नष्ट कर देना यह हमारा अमिट स्वभाव आपके द्वारा ही निर्मित है. अब आप ही उसे शान्त करने की कृपा करें."


ब्रह्मा जी ने कहा- मैं मानता हूं, तुम्हें मैंने उत्पन्न किया है और तुममे कुटिलता भी भर दी है, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि तुम निर्दय होकर नित्य मनुष्यों को खाया करो."


सर्पों ने कहा- "भगवन् ! आप हमें अलग-अलग रहने के लिए कोई सुनिश्चित स्थान की व्यवस्था कर दीजिए और एवं नियम भी बता दें." नागों की यह बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा- सर्पों! तुम लोग मनुष्यों के साथ भी रह सको इसके लिए मैं स्थान का निर्णय कर देता हूं. तुम सब लोग मन को एकाग्रकर मेरी आज्ञा सुनो-


सुतल, वितल और पाताल- ये तीन लोक कहे गये हैं. तुम्हें रहने की इच्छा हो तो वहीं निवास करो. वहां मेरी आज्ञा तथा व्यवस्था से अनेक प्रकार के भोग तुम्हें भोगने के लिए प्राप्त होंगे. रात के सातवें पहर तक तुम्हें वहां रहना है. फिर वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में कश्यप जी के यहां तुम्हारा जन्म होगा. देवता लोग तुम्हारे बन्धु- बान्धव होंगे. बुद्धिमान् गरुड (Garuda) से तुम्हारा भाईपने का सम्बन्ध होगा.


उस समय कारण वश तुम्हारी सारी संतान (जनमेजय के यज्ञ में) अग्नि के द्वारा जलकर स्वाहा हो जाएगी. इसमें निश्चय ही तुम्हारा कोई दोष न होगा. जो सर्प अत्यन्त दुष्ट और उच्छृङ्खल होंगे, उन्हीं की उस शाप से जीवन लीला समाप्त होगी. जो ऐसे न होंगे, वे जीवित रहेंगे. हां, परेशान करने पर या जिनका काल ही आ गया हो, उन मनुष्यों को समयानुसार निगलने या काटने के लिए तुम स्वतन्त्र हो.


गरुड सम्बन्धी मंत्र, औषध और बद्ध गारुडमण्डल द्वारा दांत कुण्ठित करने की कलाएं जिन्हें ज्ञात होंगी, उनसे निश्चय ही तुम्हें डर कर रहना चाहिए, अन्यथा तुम लोगों का विनाश निश्चित है.


ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर वे सम्पूर्ण सर्प पृथ्वी के नीचे पाताल लोक में चले गए। इस प्रकार ब्रह्मा जी से शाप एवं वरदान पाकर वे पाताल में आनन्द पूर्वक निवास करने लए. ये सारी बातें उन नाग महानुभावों के साथ पंचमी तिथि के दिन ही घटित हुई थीं. अतः यह तिथि धन्य, प्रिय, पवित्र और सम्पूर्ण पापों का संहारक सिद्ध हो गयी. इस तिथि में जो खट्टे पदार्थ के भोजन का परित्याग करेगा और दूध से नागों को स्नान करायेगा, सर्प उसके मित्र बन जाएंगे.


नगपंचमी की पूजा का विधान स्कंद पुराण श्रावण माहात्म्य अध्याय क्रमांक 14 में वर्णित हैं–


सीचतुर्थ्यामेकभुक्तं तु नक्तं स्यात्पञ्चमीदिने।
कृत्वा स्वर्णमयं नागमथवा रौप्यसम्भवम् ॥ २॥
कृत्वा दारुमयं वापि अथवा मृण्मयं शुभम्।
पञ्चम्यामर्चयेद्भक्त्या नागं पञ्चफणान्वितम् ॥ ३॥
द्वारस्योभयतो लेख्या गोमयेन विषोल्बणाः।
पूजयेद् विधिवच्चैव दधिदूर्वाङ्करैः शुभैः॥ ४॥"


अर्थ- "स्वर्ण, चांदी, काष्ठ अथवा मिट्टी का पांच फणों वाला सुन्दर नाग बनाकर पंचमी के दिन उस नाग की भक्ति पूर्वक पूजा करनी चाहिए. द्वार के दोनों ओर गोबर से बड़े-बड़े नाग बनाए और दधि, शुभ दूर्वांकुरों, कनेर-मालती-चमेली-चम्पाके पुष्पों, गन्धों, अक्षतों, धूपों तथा मनोहर दीपों से उनकी विधिवत् पूजा करे." आगे के श्लोकों में लिखा है "प्रत्यक्ष नागों का पूजन करे और उन्हें दूध पिलाएं; घृत तथा शर्करामिश्रित पर्याप्त दुग्ध उन्हें अर्पण करें (वल्मीके पूजयेन्नागान्दुग्धं चैव तु पाययेत् । घृतयुक्तं शर्कराढ्यं यथेष्टं चार्पयेद् बुधः ॥9॥)।"


नागपंचमी में  नागों की पूजा करके स्वयं नाग आपकी प्रार्थना की अनुशंसा शिव जी या विष्णु जी तक ले जाते हैं :–


स्कंद पुराण श्रावण माहात्म्य अध्याय क्रमांक 14 में वर्णित हैं–


बद्धाञ्जलिः प्रार्थयते वासुकिश्च सदाशिवम् ।
शेषवासुकिविज्ञप्त्या शिवविष्णू प्रसादितौ ॥ 31 ॥
मनोरथांस्तस्य सर्वान्कुरुतः परमेश्वरौ ।
नागलोके तु तान्भोगान्भुक्त्वा तु विविधान्बहून् ॥ 32 ॥
ततो वैकुण्ठमासाद्य कैलासं वापि शोभनम् ।
शिवविष्णुगणो भूत्वा लभते परमं सुखम् ॥ 33॥


अर्थ- यदि कोई मनुष्य वित्तशाठ्य से रहित होकर नागपंचमी का व्रत करता है, तो उसके कल्याण के लिए सभी नागों के अधिपति शेषनाग तथा वासुकि हाथ जोड़कर प्रभु श्रीहरि से तथा सदाशिव से प्रार्थना करते हैं. तब शेष और वासुकि की प्रार्थना से प्रसन्न हुए परमेश्वर शिव तथा विष्णु उस व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण कर देते हैं. वह नागलोक में अनेक प्रकार के विपुल सुखों का उपभोग करके बाद में उत्तम वैकुण्ठ अथवा कैलास में जाकर शिव तथा विष्णु का गण बनकर परम सुख प्राप्त करता है.


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