दिवाली से एक दिन पहले नरक चतुर्दशी या कौमुदी उत्सव, शास्त्रों के अनुसार जानें इसका महत्व
दिवाली से एक दिन नरक चतुर्दशी पर्व मनाया जाता है.धार्मिक ग्रंथों के जानकार अंशुल पांडे से जानते और समझते हैं नरक चतुर्दशी या कौमुदी उत्सव का शास्त्रों के अनुसार क्या है महत्व.
नरक चतुर्दशी अथवा कौमुदी उत्सव शास्त्रों के अनुसार
दिवाली लक्ष्मी पूजन के ठीक एक दिन पहले नरक चतुर्दशी होती है. भविष्य पुराण उत्तरपर्व अध्याय क्रमांक 140 के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं- महाराज! पूर्वकालमें भगवान विष्णु ने वामनरूप धारण कर दानवराज बलि से जीत कर इन्द्र का राज्य का भार सौंप दिया और राजा बलि को पाताल लोक में स्थापित कर दिया. भगवान ने बलि के यहां सदा रहना स्वीकार किया. कार्तिक की अमावास्या को रात्रि में सारी पृथ्वी पर दैत्यों की यथेष्ट चेष्टाएं होती हैं.
युधिष्ठिरने पूछा- भगवन! कौमुदी तिथि की विधि को विशेष रूप से बताने की कृपा करें. उस दिन किस वस्तु का दान किया जाता है. किस देवता की पूजा की जाती है और कौन-सी क्रीड़ा करनी चाहिए.
भगवान श्रीकृष्ण बोले- राजन्! कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को प्रभात (सुबह) के समय नरक के भय को दूर करने के लिये स्नान अवश्य करना चाहिये. अपामार्ग (चिचड़ा) के पत्र सिरके ऊपर मन्त्र पढ़ते हुए घुमाए. मन्त्र इस प्रकार है-: –
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणं पुनः पुनः ।आपदं किल्बिषं चापि ममापहर सर्वशः । अपामार्ग नमस्तेऽस्तु शरीरं मम शोधय ॥ (भविष्य पुराण उत्तरपर्व 140.9)
इसके बाद धर्मराज (यमराज) के नामों- यम, धर्मराज, मृत्यु, वैवस्वत, अन्तक, काल तथा सर्वभूतक्षय का उच्चारण कर तर्पण करें. देवताओं की पूजा करने के बाद नरक से बचने के उद्देश्य से दीप जलाएं. प्रदोष के समय शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि के मन्दिरों में, कोष्ठागार, चैत्य, सभामण्डप, आदि स्थानों में दीप प्रज्वलित करने चाहिए.
अमावास्या के दिन प्रातःकाल स्नानकर देवता और पितरों का भक्ति पूर्वक पूजन तर्पण करें. ब्राह्मण को भोजन करा कर दक्षिणा प्रदान करें. दोपहर में राजा द्वारा अपने राज्य में यह घोषित करना चाहिये कि आज इस लोक में बलि का शासन है. नगर के सभी लोगों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने घर को स्वच्छ-साफ-सुथरा करके नाना प्रकार के रंग-बिरंगे तोरण-पताकाओं, पुष्प मालाओं तथा बंदनवारों से सजाना चाहिए.
सवेरे उबटन लगाकर स्नान पूजा करें, नए वस्त्र पहनें. शाम को दीप प्रज्वलित करें. प्रदोष के समय राक्षस लोक में विचरण करते हैं. उनके भय को दूर करने के लिए कन्याओं को वृक्षों पर ताण्डुल (धानका लावा) फेंकते हुए दीपकों से नीराजन करना चाहिए. दीप मालाओं के जलाने से प्रदोष वेला दोष रहित हो जाती है और राक्षसादि का भय दूर हो जाता है.
आधी रात बीत जाने पर जब सब लोग निद्रा में हों, उस समय घर की स्त्रियों को चाहिए कि वे सूप बजाते हुए घर भर में घूमती हुई आंगन तक आएं और इस प्रकार वे दरिद्रा-अलक्ष्मी को अपने घर से निस्सारण करें. प्रातःकाल होते ही वस्त्र, आभूषण आदि देकर सत्पुरुषों को संतुष्ट करे और भोजन, ताम्बूल देकर मधुर वचनों से पण्डितों का सत्कार करे. अनेक प्रकार के मल्ल क्रीडा आदि का आयोजन करे. मध्याह्न के अनन्तर नगर के पूर्व दिशा में ऊंचे स्तंभ अथवा वृक्षों पर कुश की बनी मार्गपाली बांधकर उसकी पूजा करे फिर हवन करे. मार्गपाली की आरती करनी चाहिए यह आरती विजय प्रदान करती है.
उसके बाद सभी लोगों को उस मार्गपाली के नीचे से निकलना चाहिए. मार्गपाली को बांधने वाला अपने दोनों कुलों का उद्धार करता है. राजा बलि की मूर्ति की स्थापना करे और कमल, कुमुद, कहार, रक्त कमल आदि पुष्पों तथा गन्ध, दीप, नैवेद्य, अक्षत और दीप कों तथा अनेक उपहारों से राजा बलि की पूजा कर इस प्रकार प्रार्थना करे- बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो। भविष्येन्द्रसुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ॥ (भविष्या पुराण उत्तरपर्व 140.54)
इस प्रकार पूजन कर रात्रि को जागरण पूर्वक महोत्सव करना चाहिए. नगर के लोग अपने घर में शय्या में श्वेत तण्डुल बांधकर राजा बलि को उसमें स्थापित कर फल-पुष्पादि से पूजन करें और बलि के उद्देश्य से दान करें, क्योंकि राजा , बलि के लिये जो व्यक्ति दान देता है, उसका दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है. भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर बलि से पृथ्वी को प्राप्त किया और यह कार्ति की अमावास्या तिथि राजा बलि को प्रदान की, उसी दिन से यह कौमुदी का उत्सव प्रवृत्त हुआ है.
'कु' यह बाद पृथ्वी का वाचक शब्द है और 'मुदी' का अर्थ होता है प्रसन्नता. इसलिए पृथ्वी पर सबको हर्ष देने के कारण इसका नाम कौमुदी पड़ा. वर्षभर में एक दिन बलि का उत्सव होता है, राज्य में रोग, शत्रु, महामारी और दुर्भिक्ष का भय नहीं होता. सुभिक्ष,आरोग्य और सम्पत्ति की वृद्धि होती है. इस कौमुदी तिथि को जो व्यक्ति जिस भाव में रहता है, उसे वर्षभर उसी भाव की प्राप्ति होती है. इसलिए इस तिथि को हृष्ट और प्रसन्न रहना चाहिए. यह तिथि वैष्णवी भी है, दानवी भी है और पैत्रिकी भी है. दीपमाला के दिन जो व्यक्ति भक्ति से राजा बलि का पूजन-अर्चन करता है, वह वर्षभर आनन्दपूर्वक सुख से व्यतीत करता है और उसके सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं.
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