संसार को निरंतर गति देने वाली शक्ति भगवती महामाया हैं. महामाया के प्रभाव से ही मन में ममता का भंवर उत्पन्न होते हैं. उनकी ही योगनिद्रा में भगवान विष्णु चले जाते हैं. ज्ञानी से लेकर कीट-पशु-पक्षी तक के चित्त मोह में पड़े रहते हैं. वे ही इस चराचर जगत की सृष्टि करती हैं. प्रसन्न होने पर मुक्ति का वरदान देती हैं. वे परा-विद्या, संसार बंधन और मोक्ष की अधिष्ठात्री हैं. सम्पूर्ण ईश्वरों की अधीश्वर हैं. उनके ही प्रभाव में समस्त जीव जगत मोह में पड़ा होता है, खुद भूखा रह कर भी संतान को पालता है. कभी उसका अहित नहीं सोच पाता है.


दुर्गाशप्तशती की कथा के अनुसार भगवान विष्णु जब योगनिद्रा में सो रहे होते हैं तो उनके कान के मैल से दो भयंकर असुर मधु-कैटभ उत्पन्न होते हैं और भगवान विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति का वध करना चाहते हैं.


भगवान विष्णु को सोया हुआ जान कर ब्रह्माजी भगवान विष्णु को जगाने के लिए योगनिद्रा की प्रार्थना करते हैं- हे देवि आप जगत को धारण करती हैं. आप ही सृष्टि करती हैं, आप ही पालन करतीं हैं और कल्प के अंत में संहार रूप धरण कर विनाश भी करती हैं. आप भगवान विष्णु को जगा दो और उनमें भयंकर असुरों को मारने की बुद्धि उत्पन्न कर दो.


ब्रह्मा जी की प्रार्थना से प्रसन्न माँ भगवती विष्णुजी से निकल कर ब्रह्मा जी के समक्ष खड़ी हो जाती हैं. योगनिद्रा से मुक्त होने पर भगवान विष्णु जाग जाते हैं. देखते हैं कि असुर ब्रह्मा को खा जाना चाह रहे हैं. इसलिए वे उनसे युद्ध करने लगते हैं. युद्ध में दोनों ही परास्त होने का नाम नहीं ले रहे थे. अंत में महामाया ने असुरों को भी मोह में डाल दिया. असुरों ने भगवान विष्णु से कहा हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हुए तुम वर मांगो. विष्णु से कहा मुझसे प्रसन्न हो तो मेरे हाथों से मारे जाओ.


चारों तरफ अनंत जल राशि देख कर असुरों ने कहा ठीक है तुम जहाँ सूखा स्थान हो वहाँ हमारा वध कर सकते हो. इस पर भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ को अपनी जंघा पर रख कर चक्र से उनका सिर काट डालते हैं. इस तरह माँ महामाया का स्वरूप प्रगट होता है. वे संसार में विभिन्न भावनाओं के रूप में प्रगट होती हैं. और आसुरी शक्तियों का संहार करती हैं.