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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

विशेष: नवरात्रि में गरबा, डांडिया और दुर्गापूजा का क्या इतिहास है? शास्त्रों में कहां मिलता है वर्णन, जानें

नवरात्रि का पर्व देशभर में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है. धार्मिक ग्रंथों के जानकार अंशुल पांडे से जानते और समझते हैं कि नवरात्रि को लेकर शास्त्र और पुराणों में क्या वर्णित है.

स्त्रियों को पूजनीय समझने का काम केवल हिन्दू धर्म में परिलक्षित होता है. हमारे हिन्दू त्योहारों में प्रत्येक पर्व की विशेषता होती है कि वह ऋतु के अनुकुल किसी विशिष्ट खाद्य सामग्री से जुड़ जाता है. इसलिए प्रत्येक त्योहार से कोई मौसम के अनुकूल वह पदार्थ जोड़ दिया जाता है. कुछ त्योहार कृषि पर आधारित होते हैं. हमारे पूर्वजों ने शायद उपर्युक्त बातों को देवताओं के प्रति अपने मनोरंजन के लिए कृतज्ञता प्रकट करने हेतु किया था.

होली और दीवाली सर्वमान्य बड़े त्योहार हैं. एक समय गणेश स्थापना को एक विशेष अंचल में जाना जाता था पर उसने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई है. हालांकि गणपति का त्योहार काफी दिनों तक चलता है, पर देखा गया है कि नौ दिवसीय नवरात्रि दस–ग्यारह दिवसीय गणेश चतुर्थी से कम नहीं.

स्कंद पुराण उत्तरार्द्ध 72-85.19 में लिखा है कि, संसार मे देवी का आशीर्वाद और अन्य तरह के सुखों को पाना है तो इस दौरान सपरिवार धार्मिक यात्रा करें. अगर इसमें चूक गए तो अनिष्ट की संभावनाएं बनी रहती हैं.

नवरात्रि का मूल स्वरूप है भक्ति और आनंद

ऐसे में भक्ति और आनंद ही नवरात्रि त्योहारों का मूल स्वरूप है. उत्तर भारत में घट स्थापना, पूर्वी अंचल में दुर्गा पूजा तो दक्षिण में गोलू स्थापना के रूप में नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है. कुछ लोग इस दौरान देवी के गीत गाते हैं तो कुछ नौ दिन का उपवास रखते हैं. यानी सभी अपने-अपने तरीके से इस त्योहार को मनाते हैं. जहां तक गरबा और भारत का प्रश्न है तो पहले यह गुजरात और मुंबई तक सीमित था.

प्रख्यात गुजराती लेखक और साहित्यकार प्रो कांति पटेल के अनुसार कवि दयाराम और वल्लभ भट ने माता अम्बे विशेषतः पावागढ़ वाली माता की प्रशंसा में गरबा नामक गीत लिखे थे. अश्विन में किसान थोड़ा सा चैन में रहने के कारण, वो भी अपना सारा स्नेह इसमें उड़ेल देते हैं क्योंकि मां भगवती इनके बच्चों को सुरक्षित रखती हैं.

कुछ लोग उपवास रखते हैं तो कुछ खा-पीकर मस्त होकर गरबा नृत्य करते हैं. हमारे देश के पूर्वी छोर पर विशेष रूप से बंगाल में मां दुर्गा की आराधना करते हुए लोग आनंद प्रमोद करते हैं, जिसको वे दुर्गा पूजा कहते हैं. इस परंपरा का आरम्भ भागवत पुराण (10.29.1) के अनुसार, द्वापर युग में कृष्ण और गोपियों द्वारा किया गया. कई संत इस नृत्य को आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में देखते हैं. इस परंपरा का निर्वहन गुजरात में सदियों से किया जा रहा है. स्कन्दपुराण उत्तरार्ध 72.85–89 में नवरात्रि के नौ दिनों में एक आनंदमय माहौल की बात लिखी है. शिवपुराण 51.73–82 में इस त्योहार के आनंद-मंगल का उल्लेख है.

दुर्गा पूजा का इतिहास

बंगाल के पर्यटन विभाग के 2018 के आंकड़े खंगालने पर पता चला कि, यह पर्व बंगाल में मनाया जाता है. बंगाल में दर्ज गजट के लेख के अनुसार, यहां इसकी शुरुआत पन्द्रहवीं सदी में पहली दुर्गापूजा मालदा और दिनाजपुर में मनाई गई. वहां के पुराने बाशिंदों का यह मानना है कि ताहिरपुर के राजा कंगशा नारायण या नादिया के भाभा नारायण ने पर्व के दरम्यान भोग खिलाने की परम्परा 1606 में आरम्भ की. पहली सार्वजनिक पूजा बरोरयारीयों ने शुरू की इसलिए यहां इस पूजा को बारोरी पूजा भी कहते हैं. गुप्तापारा के बारह लोगो ने हुगली में इस पूजा का आरम्भ हुआ. बारो का मतलब बारह और यारी मतलब दोस्त. तो12 दोस्तो द्वारा आरम्भ हुई जोकि आज तक जारी है. कोलकाता में पहली पूजा का 1832 में राजा हरिनाथ ने कोसिम बाजार में शुरू की थी.

सतयुग काल से चली आ रही है देवी पूजा की प्रथा

शिवपुराण उमा संहिता 51.73-82 के अनुसार नवरात्रि अश्विन मास के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है. विधिपूर्वक नवरात्रि पूजन करने पर विरथ के पुत्र सुरथ ने खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त किया था. ध्रुवसन्धि के पुत्र सुदर्शन ने विधिवत नवरात्रि करने पर अयोध्या को प्राप्त किया था. देवी की आराधना और पूजा व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्ति दिलाता है और अंत में वह मोक्ष प्राप्त करता है.

ये सभी विधियां सबसे प्राचीन घटक शाक्त परंपरा में आती है. इन सनातन कर्मो का उल्लेख ऋग्वेद में भी है. आचार्य सायन द्वारा लिखे ऋग्वेद के भाष्य (7.103.5) में शाक्त को शाक्त स्येव लिखा है. अर्जुन ने भी दुर्गा की पूजा की थी (महाभारत भीष्म पर्व 23 अध्याय) ऋग्वेद में भी देवीसूक्तम का उल्लेख है(1०.125.1–8). यह तो साबित हो गया कि देवी पूजा सतयुग काल से चली आ रही है.

वर्ष में दो बार यानी अश्विन और चैत्र मास मे, शरद और वसंत ऋतु में मां भगवती नौ दिनों के लिए घर पर पधारती हैं. इन पवित्र नौ दिनों में देवता भगवती की आराधना करते हैं. इन दिनों माता की विशेष अनुकंपा की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसे मौसम में अनेक रोग हमें घेर लेते हैं. देवी भागवत के तृतीय खण्ड में तृतीय कांड में लिखा है कि, प्रभु राम ने नारद की सलाह पर देवी पूजा की थी जब वे सीता को ढूंढने निकले. इसी अध्याय 21 में स्वर्ग में ब्रह्मा विष्णु और महेश को यज्ञ करते हुए कहा गया है.

नवरात्रि पूजन विधि

नौ दिन के इस आयोजन को विधिपूर्वक करें. पूर्व तैयारी के साथ पूजा करें. एक स्वच्छ स्थान पर वेदी निर्मित करें जिसे गोबर और मिट्टी से लिपा गया है. दो खम्बे लें जिसपर ध्वज फहराया है. इसको रेशमी कपडों से ढंके. मध्य में देवी प्रतिमा स्थापित करें.बगल में कलश रखें. कलश में विभिन्न नदियों का जल भरें. उसके ऊपर पांच पत्ते रखें जैसे पान, आम इत्यादि. चाहें तो नवार्ण यन्त्र रखें मूर्ति के स्थान पर. मूर्ति की स्थापना हस्त नक्षत्र में नंदी तिथि को करें. चन्दन,अगर, कपूर, मन्दार और चम्पा के फूल बिल्व पत्र चढ़ाएं. साथ ही धूप और दीप करते हुए नौ दिन जमीन पर सोएं. नौ दिन न कर पाएं तो अंतिम तीन दिन करें.

कुमारी पूजन :–

देवी पुराण के अनुसार, नवरात्रि में कन्या पूजन अनिवार्य है. वास्तव में कुमारी पूजा प्रथम दिन से ही शुरू करनी चाहिए जहां पहले दिन एक कुमारी कन्या को पूजना चाहिए. इस तरह दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन और अंतिम दिन नौ कन्याओं का पूजन होगा. कन्या को भोजन वस्त्र और आभूषण दें. रोज सम्भव न हो तो तो अष्टमी के दिन करें जब हवन हो. ध्यान रखें कि छोटी आयु की कन्या कम से कम दो वर्ष की होनी चाहिये और सबसे बड़ी दस से कम. निम्न आलेख में नौ दिन की कुमारिका के नाम और आयु लिखी है.

 

कन्या की आयु   नाम
एक साल लागू नहीं
दो साल अनाम
तीन साल त्रिमूर्ति (यह पूजन शत्रुओ और रोग को समाप्त कर धनवान बनाता है)
चार साल कल्याणी (यह पूजन आपको ज्ञान, विजय और आनंद दिलाता है)
पांच साल रोहिणी (यह पूजन आपको धन और आनंद देता है)
छह साल कलिका (यह पूजन नाम, कीर्ति, यश और स्वास्थ्य दिलाता है)
सात साल चण्डिका (यह पूजन ऐश्वर्य दिलाता है)
आठ साल शाम्भवी (यह पूजन गरीबी दूर कर आपको धनवान बनाएगा)
नौ साल दुर्गा (यह पूजन क्रूर शत्रुओं को नष्ट करता है और आपकी यात्रा को आसान बनाता है)
दस साल सुभद्रा (यह पूजन शत्रु नाशक है और आपकी मनोकामना पूरी करता है)

नवरात्रि के नौ दिन हम निम्नलिखित देवियों को पूजते हैं.

  • शैलपुत्री:–ये हम पर शासन करती हैं. ये ही गिरिराज पुत्री पार्वती हैं. पुराणों में लिखा है कि इनका जन्म इनकी घोर तपस्या के कारण हुआ.
  • ब्रह्मचारिणी: – ब्रह्मचारियितुम शीलं यस्याः सा ब्रह्नचारिणी अर्थात जो ब्रह्मस्वरूप बनाता है वह ब्रह्मचारिणी है.
  • चन्द्रघण्टा: – चन्द्रघन्टे यस्याः सा अर्थात आनंद प्रदान करनेवाली, चन्द्रमा जो घण्टे में निवास करते हैं.
  • कुष्मांडा: – कुत्सित ऊष्मा कृष्मा त्रिविधतापसे युक्त अर्थात पेट में तीन तरह के ताप मौजूद हैं.
  • स्कन्दमाता: – स्कंद यह कार्तिकेय का नाम है इसीलिए स्कंद की माता स्कंदमाता हैं. छांदोग्य श्रुति के अनुसार जब सनत कुमार माता के पेट की शक्ति से निकले वे स्कंद कहलाएं.
  • कात्यायनी:– चूंकि ये ऋषि कात्यायन के आश्रम में बेटी रूप में प्रगट हुईं तो कात्यायनी कहलाईं.
  • कालरात्रि:–इनका ऐसा नाम इसलिए है कि बुराई पर काल की तरह टूट पड़ती हैं. महाभागवत पुराण 14.57 के अनुसर चूँकि देवी कालरात्रि काल की भी काल हैं, इसलिये लोग महाकाली कहते हैं.
  • महागौरी: – उन्होंने तपस्या द्वारा अच्छाइयों को प्रस्थापित किया इसलिए महागौरी कहते हैं.
  • सिद्धिदात्री: – ये मोक्ष या सिद्धि दिलवाती हैं.

ये भी पढ़ें: Navratri 2023: नवरात्रि में कैसा होना चाहिए आपका पोशाक, जानिए परंपरा को ध्यान में रखते हुए फैशन में क्या करें और क्या न करें

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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