New Year 2023, Kabir Das Ke Dohe: कबीर दास संत, विचारक और समाज सुधारक के साथ ही हिंदी साहित्य के ऐसे कवि भी थे, जिन्होंने समाज में फैली बुराईयों और अंधविश्वासों की निंदा अपनी लेखनी के माध्यम से की.


कबीर दास के दोहे से जीवन का असली ज्ञान प्राप्त होता है और जीने की नई सीख मिलती है. यही कारण है कि आज भी उनके कई दोहे लोगों की जुबान पर होते हैं. जब भी कोई गलत कार्य करता है तो उसे कबीर दास के दोहे पढ़कर उसकी गलती का अहसास दिलाया जाता है.


नए साल 2023 का इंतजार सभी को है. क्योंकि नया साल अपने साथ नई आशाएं और उम्मीदें लेकर आता है. इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि नए साल में आपके द्वारा कोई ऐसा कार्य न हो, आपसे कोई ऐसी गलती न हो जिससे दूसरों का मन दुखी हो. नए साल में कबीर दास के कुछ दोहे को अपने जीवन में जरूर अपनाएं. कबीर दास के ये दोहे जीवन का असली ज्ञान है, जिससे नए साल में जीवन जीने की कई सीख मिलेगी.


संत कबीर दास के 10 सबसे प्रचलित दोहे


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ॥


अर्थ: जब मैं संसार में बुराई ढूंढ़ने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला. लेकिन जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा तो कोई नहीं है.


जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||

अर्थ: जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो. कबीर कहते हैं कि मरने के पहले ही जो मर ले, वह अजर-अमर हो जाता है. क्योंकि शरीर रहते-रहते जिसके सभी अहंकार खत्म हो गए, वो वासना-विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं.


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।


अर्थ: इस दोहे में कबीर कहते हैं, बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए. लेकिन सभी विद्वान न हो सके. यदि कोई प्रेम के केवल ढाई अक्षर ही पढ़ ले तो प्यार का वास्तविक रूप पहचान कर वही सच्चा ज्ञान होगा.


साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।


अर्थ: व्यक्ति को ऐसा होना चाहिए जैसे कि अनाज को साफ करने वाला सूप. जो सार्थक तत्‍व को बचा लेता है और निरर्थक को भूसे के रूप में उड़ा देता है. यानि ज्ञानी वही है जो बात के महत्‍व को समझे और उसके आगे पीछे के विशेषणों से प्रभावित ना हो.


तिनका कबहुं ना निन्दिये, जो पांवन तर होय, कबहुँ उड़ी आंखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।


अर्थ: इस दोहे में कबीर कहते हैं कि, एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आंख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है.


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।


अर्थ: कबीरदास कहते हैं  जैसा भोजन खाओगे,वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी. यानी शुद्ध-सात्विक आहार और पवित्र जल से मन और वाणी भी पवित्र होते हैं. इसी तरह जो जैसी संगति में रहता है वह वैसा ही बन जाता है.


कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय॥


अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं, अपने परिवार की मर्यादा के लिये व्यक्ति ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था. उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा.


चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।


अर्थ: चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आंखों से आसू निकल आते हैं. वो कहते हैं कि चक्की के दो  पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता.


चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह । जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥


अर्थ: इस दोहे में कबीर दास जी कहते हैं, जब से पाने की चाह और चिंता मिट गयी है, तब से मन बेपरवाह हो गया है. इस संसार में जिसे कुछ नहीं चाहिए बस वही सबसे बड़ा शहंशाह है अर्थात सुखी है.


माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रोंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी तोय।।


अर्थ: मिट्टी कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रौंद रहा है.
एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे पैरों तले रौंदूंगी.


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