Ram Katha: आनंद रामायण में वर्णित है कि प्रभु श्रीराम अयोध्या आने के बाद पुनः दो बार लंका गए थे. वे वहां विभीषण की रक्षा हेतु गए थे. आनंद रामायण (राज्य काण्ड पूर्वार्द्ध, अध्याय क्रमांक 4–7) अनुसार, श्रोणा नदी के तट पर मायापुरी नाम की नगरी थी. महाबली पौण्ड्रक ने विभीषण को परास्त कर दिया और लंका का राज्य स्वयं करने लगा. उस समय विभीषण राम के पास गए और उन्होंने अपना सब वृत्तान्त सुनाया. मित्र के उस दुःख भरी कहानी को सुनकर राम और सीता विभीषण के साथ लंका को चल दिए. वहां पहुंचकर उन्होंने पौण्ड्रक को मारा और फिर विभीषण को लंका के सिंहासन पर बैठा कर अयोध्या लौट आए.


जब विभीषण के कुंभकरण के पुत्र के बारे में बताया


इसके बाद एक दिन राम अपनी सभा में बैठे थे, तब अपनी स्त्री, पुत्र तथा मंत्रियों के साथ विभीषण भाव से बैठे कहा- हे राम! मैं आपकी शरण में हूं, मेरी रक्षा कीजिए. बहुत दिनों की बात है, जब मूल नक्षत्र में कुम्भकर्ण के एक पुत्र हुआ था. कुम्भकर्ण ने दूतों द्वारा उस लड़के को जंगल में छुड़वा दिया. वहीं मधुमक्खियों ने उसके मुंह में मधु की एक-एक बूंद टपकाकर उसकी रक्षा की. वह इस समय बड़ा हुआ है. जब उसने लोगों के मुंह से यह सुना कि राम ने मेरे पिता तथा कुटुम्बियों का नाश किया है, तब उग्र तपस्या द्वारा उसने ब्रह्मा को संतुष्ट करके वर (सिर्फ स्त्री के हाथों मरेगा) प्राप्त कर लिया. वर के प्रभाव से गर्वित होकर पाताल निवासी राक्षसों की सहायता से उसने लंका पर चढ़ाई कर दी. विभीषण ने छः महीने तक उसके साथ धमासान युद्ध किया. अंत में उसने उन्हें परास्त करके लंका पर अधिकार कर लिया.


ऐसी अवस्था में विभीषण आधी रात को अपने पुत्र, स्त्री एवं मंत्रियों के साथ एक सुरंग के रास्ते से भागे. एक योजन दूर भागने पर ठहर गये जहां रात्रि व्यतीत हो गयी. जब आगे बढ़े और राम के पास अयोध्या आ पहुंचे, वह राक्षस मूल नक्षत्र में पैदा हुआ तथा वृक्षों के नीचे उसका पालन-पोषण हुआ है. इसीलिए लोग उसे मूलकासुर कहते थे. युद्ध करते-करते एक बार उसने विभीषण से कहा था कि इस रणभूमि में पहले तुझको मारकर लंका पर अधिकार कर लेने के बाद में उस राम के पास जाऊंगा, जिसने मेरे पिता तथा मेरे कुल का संहार किया है. संग्रामभूमि में राम को मारकर मैं अपने पितृऋण से उऋण हो जाऊंगा. विभीषण बोले  हे रघुनन्दन! मैं जहां तक जानता हूं, शीघ्र ही वह आप से भी युद्ध करने के लिए आयेगा. ऐसी अवस्था में आप जो उचित समझें सो करें.


रामजी ने बनाई मूलकासुर को मारने की योजना


विभीषण का हाल सुनकर राम बड़े विस्मित हुए. तुरन्त लक्ष्मण से उन्होंने कहा कि, संसार में जितने राजा हैं, उनके पास दूत भेजकर शीघ्र बुलवा लो. लक्ष्मण ने राम की आज्ञानुसार दूत भेजें. दूतों ने शीघ्र लौटकर राम से कहा कि हम लोग सब राजाओं के पास हो आये. इस प्रकार निश्चय करके राम ने शुभ दिन और मुहूर्त में अपनी विशाल सेना तथा लक्ष्मण-भरत आदि भ्राताओं के साथ मूलकासुर को मारने के लिए अयोध्या से प्रस्थान कर दिया. लव और कुश को भी साथ में लिया. राम ने यात्रा के समय सारी सेना को पुष्पक विमान पर बिठा लिया. रास्ते में राम के अनुगामी राजा भी अपनी-अपनी सेना के साथ जाकर राम से मिल गये. उन लोगों को भी राम ने विमान में बिठा लिया.


इस यात्रा में सुग्रीव अठारह पद्म बन्दरों के साथ आये थे. उनको भी राम ने पुष्पक पर बिठा लिया. इसके अनन्तर सीता को छोड़कर राम विमान पर बैठे. आकाशमार्ग से अनेक देशों को देखते हुए वे लंका की ओर बढ़े और अल्प समय में ही निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच गये. उधर जब मूलकासुर ने यह समाचार सुना तो रामचन्द्र के साथ युद्ध करने के लिए एक करोड़ सेना लेकर लंका के बाहर वाले मैदान में आ डटा. उस समय ब्रह्मा के वरदान से वह बड़े घमण्ड में था. फिर क्या कहना था, राक्षस गण वानरों को लातों से मारने लगे. वानरयूथ ने पहाड़ के बड़े-बड़े टुकड़ों तथा वृक्षों से प्रहार करना आरम्भ कर दिया. इस तरह सात दिन तक उन दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध होता रहा.


उस संग्राम में जो जो वानर मरते थे तो हनुमान जी द्रोणाचल पर्वत वाली औषधि लाकर उन्हें जीवित कर दिया करते थे. राक्षसों की एक चौथाई सेना रह गयी, शेष सब मार डाले गये. मूलकासुर ने जब देखा कि अब थोड़े से राक्षस बचे रह गये हैं तो क्रुद्ध होकर अपने मन्त्रियों, सेनापतियों और सेना को भेजकर उसने बड़ी वीरता के साथ लड़ने को ललकारा. उधर जब राम-दल के लोगों ने देखा कि राक्षसों की और भी सेना आ गयी है और वे अपनी तलवारों से मेरी सेना को मारकर ढेर किये दे रहे हैं तब वे भी पर्वत की बड़ी-बड़ी चट्टानों को लेकर फिर भयंकर युद्ध करने लगे और थोड़ी ही देर में शत्रु के मंत्री, सेनापति तथा सेना को यमपुर पहुंचा दिया.


जब मूलकासूर ने सुना कि वह सेना भी साफ हो गयी तो मारे क्रोध के तमतमा उठा और स्वयं एक दिव्य रथ पर सवार हो तथा थोड़ी-सी सेना साथ लेकर लड़ने को चल पड़ा. राम के साथ वाले राजाओं ने अब उसे लड़ने को तैयार देखा तो वे भी मैदान में आ गए. उन लोगों ने दुन्दुभी की घनघोर गर्जना के साथ उस राक्षस पर बाण वर्षा प्रारम्भ कर दी, लेकिन मूलकासुर ने क्षणभर में उन लोगों को मूर्छित कर दिया. जब राजाओं को मूर्छित देखा तो रामचन्द्र की आज्ञा से सुमन्त्र आदि मन्त्री अपनी-अपनी सेना के साथ लड़ने के लिए गए. मन्त्री भी बेहोश हो गये तो कुश आदि बालक जाकर लड़ने लगे. कुश आदि के पहुंचने पर वहां भीषण युद्ध हुआ.


कुछ देर बाद कुश ने अपने बाणों से मूलकासुर को उठाकर फेंक दिया और वह लंका के बाहर में जा गिरा. किन्तु तुरन्त उठ खड़ा हुआ और उत्तम शस्त्र तथा रथ प्राप्त करने की इच्छा से एक कन्दरा में घुस गया, द्वार बन्द कर लिया और यहां व्यभिचारि की क्रिया के अनुसार हवन आदि करने लगा. जब विभीषण ने हवन के धुएं को देखा तो भाइयों की मण्डली में कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए रामचन्द्र के पास जाकर इस प्रकार कहा- हे राम! वह कन्दरा में बैठा हवन कर रहा है. अतएव फिर वानरों को भेजिए. यदि कहीं हवन सम्पन्न हो गया तो फिर वह किसी से भी नहीं जीता जा सकेगा.


ब्रह्माजी ने रामजी को बताया मूलकासुर को मारने का उपाय


इसी बीच में बहुत से देवताओं के साथ ब्रह्माजी वहां आ गए. राम ने उनको प्रणाम करके विधिवत् पूजन किया. थोड़ी देर बाद ब्रह्मा ने राम से कहा- हे रघुनन्दन! बहुत दिनों की बात है, मूलकासूर घोर तपस्या कर रहा था. अंत में वर मांगने पर  मैने उसे यह वरदान दिया था कि तुम किसी वीर के मारने से नहीं मरोगे. अतएव पुरुष के हाथ से इसकी मृत्यु नहीं होगी. यह किसी स्त्री के हाथों ही मारा जा सकेगा. एक कारण यह भी है कि एक बार शोकाकुल होकर मूलकासुर ने एक ब्राह्मण मंडली के समक्ष कहा था कि चंडी सीता के कारण ही मेरे कुल का नाश हुआ है. इस बात को सुनकर एक ऋषि ने उसको श्राप दे दिया कि जिस सती-साध्वी सीता के लिए तू ऐसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर रहा है, वही सीता तुझे भी शीघ्र ही मारेगी. मुनि का शाप सुनकर मूलकासुर ने उसे तुरन्त मार डाला. फिर उसके डर से शेष ऋषि चुपचाप बैठे रह गए. 


मेरे कहने का मतलब यह है कि उस ऋषि के शाप तथा मेरे वरदान से सीता के हाथों से ही इस अधम की मृत्यु होगी. इसमें कोई संदेह नहीं हैं. राम ने ब्रह्मा की बातें सुनकर विभीषण से कहा कि आज मूलकासुर के यज्ञ में विघ्न डालने की कोई आवश्यकता नहीं हैं. जब सीता यहां आ जायें, तब वानरों को उसके यज्ञ में विघ्न डालने की आज्ञा दी जाएगी. फिर राम गरुड़ से कहने लगे तुम जाओ और सीता को अपनी पीठ पर बिठाकर यहां ले आओ. चलते समय रास्ते में हनुमान जी दुष्टों से उनकी रक्षा करते रहेंगे. रामचन्द्र की आज्ञा को सादर स्वीकार करके वे दोनों वहां से अयोध्या के लिए चल पड़े.


सीताजी को अयोध्या से लाने पहुंचे गरुड़राज


सीता अयोध्या में श्री रामका स्मरण करती हुई उनके वियोग से व्याकुल रहा करती थीं. थोड़ी देर बाद गरुड़ और हनुमान जी अयोध्या पहुंचे. राम के आज्ञानुसार सीता उसी दिन कुछ ब्राह्मणों, पुरोहितों तथा अग्नि को साथ लेकर गरुड़पर जा बैठी और अयोध्या से निकली. सीता गरुड़ पर सवार हुईं. हनुमान जी सीता की रक्षा करने लगे और सीता रास्ते के अनेक देशों को देखती हुई लंका की तरफ चलीं. इस प्रकार बहुत शीघ्र लंका में पहुंचकर उन्होंने देखा कि रामचन्द्रजी वहां कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं. वहां पहुंचीं तो उतरकर उन्होंने रामचन्द्र को प्रणाम किया.


इसके बाद दूसरे दिन राम ने स्नान किया, सीता को भी स्नान करवाया और सब अस्त्रविद्या, शस्त्रविद्या एवं उनके आवाहन तथा विसर्जन की रीति सिखलायी. सीता की छाया को रथ पर सवार कराया गया जिसका दारुक सारथी था, विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र एवं गदा-पद्य उसमें रखे थे और रथ के ऊपर गरुड़ से अंकित पताका फहरा रही थी. उस पर बढ़िया छत्र लगा था और सुवर्ण के दण्ड लगे दो सफेद चामर रखे थे. उसी समय राम के द्वारा प्रेरित वानर लंका में पहुंचे और उन्होंने मूलकासुर को हवन कर्म से विचलित कर दिया. फिर लौटकर वे वानर राम के पास पहुंचे और सब समाचार सुनाया.


उधर मूलकासुर कुपित होकर रथ पर जा बैठा और संग्राम के लिए चल पड़ा. जाते-जाते रास्ते में एक जगह उसका मुकुट माथे से खिसक कर जमीन पर गिरा और वह स्वयं भी फिसलकर गिर पड़ा. फिर भी वह लौटा नहीं, उसी गर्व के साथ रणभूमि में पहुंचा. इधर सीता भी रथ पर बैठीं और अपने लक्ष्मणादि वीर सैनिकों के साथ रणभूमि की ओर चल पड़ीं.


मूलकासुर और सीताजी का हुआ सामना


इसके अनन्तर उस छायामयी सीता ने अपने धनुष का विकराल टंकार किया और संग्रामभूमि में जा डटीं, तब मूलकासुर ने भी उन्हें देखा. उन्हें देखकर कुंभकर्ण के बेटे ने घबराकर कहा- तुम कौन हो? यहां युद्ध करने के लिए क्यों आई हो ? इन बातों का उत्तर दो और यदि तुम्हें अपने प्राण प्रिय हो तो मेरे आगे से हट जाओ.  स्त्रियों से नहीं लड़ना चाहता. थोड़ी ही देर बाद प्रमुख सीता आकाश में राम के साथ विमानपर बैठी हुई दिखायी पड़ी. वहां से पर्वतों को भी डरा देने वाले स्वर में सीता कहने लगी सुन मूलकासुर! इस समय उग्र रूप धारण किए मैं चण्डिका सीता हूं! आज तुम्हें मारकर ही मैं जाऊंगी. इतना कहकर सीता ने अपना धनुष उठाया और तड़ातड़ पांच बाणों से मूलकासुर पर प्रहार किया.


इसके अनन्तर उस दैत्य ने भी अपना धनुष सम्हालकर सीता के ऊपर कई बाण चलाये. उन दोनों के उस तुमुल युद्ध को देखने के लिए वहां बहुत से राजे तथा वानर पुष्पक विमानपर बैठे थे, जिनको हनुमानजी ने संजीवनी बूटी से जीवित कर दिया था. थोड़ी देर बाद वानरों ने देखा कि राम जी सीता माता के साथ कल्पवृक्ष की छाया में स्वर्णजटित आसन पर बैठे हैं. दासियां पंखा झल रही हैं और उनके आगे-पीछे तकिया लगी हुई हैं. रामचन्द्रजी वहीं से बैठे छायामयी सीता तथा मूलकासुर का युद्ध देख रहे थे.


सीताजी ने दिव्स अस्त्र से मूलकासुर का मुण्ड शरीर से अलग कर दिया


सीता ने पवनास्त्र छोड़कर उसका निवारण किया. इसके अनन्तर वेग के साथ उसने सर्वास्त्र चलाया. सीता ने गरुडास्त्र छोड़कर उसे व्यर्थ कर दिया. इस प्रकार सीता और मूलकासुर में सात दिन पर्य्यन्त महान युद्ध होता रहा. तदनन्तर कुपित होकर सीता ने मूलकासुर का नाश करने के लिए अपना एक दिव्य अस्त्र चलाया, जिससे पृथ्वी डगमगाने लगी और समुद्र अपनी मर्यादा को लांधकर बड़ी-बड़ी लहरें उछालने लगा. दसों दिशाएं धूल से व्याप्त हो गयी और उन चण्डीरूपधारिणी सीता के उस महान दिव्य अस्त्र ने बात की बात मे मूलकासूर के मुण्ड को शरीर से अलग कर दिया. उसका एक हिस्सा लंका के राजद्वार पर जा गिरा. इस घटना ने लंका नगरी के दैत्यों में हाहाकार मचा गया. उधर देवताओंने प्रसन्न होकर अपनी दुन्दुभी बजाई, अपने-अपने विमानों पर बैठकर वे आकाश मे आये और राम तथा सीता पर उन्होंने पुष्पवृष्टि की. इसके बाद सीता की छाया राम के समीप पहुंची. वहां वह राम तथा सात्त्विका सीता को प्रणाम करके उन्हीं के स्वरूप में लय हो गयी. उस समय फिर देवताओं ने अपने मंगलवाद्य बजाये और अप्सराएं नाचने लगीं.


विभीषण का अभिषेक कर रामजी ने उन्हें राज सिंहासन पर बिठाया


इसके पश्चात् विभीषण ने भगवान से प्रार्थना की कि पहले जब आप रावण को मारने के लिए लंका में आये थे तो सीता की आज्ञा न होने के कारण आपने नगरी में प्रवेश नहीं किया था. किन्तु अबकी बार आप मेरे घर पधारकर मुझे कृतार्थ कीजिए. राम ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपने पुष्पक विमान पर बैठकर लंका में अपने मित्र विभीषण के भवन में पधारे. वहां पहुंचकर राम ने विभीषण का अभिषेक करके लंका के राज सिंहासन पर बिठया. उस समय लंका में बड़ा उत्सव मनाया गया. इसके बाद विभीषण ने राम, सीता तथा लक्ष्मणादि का विविध रत्नों और वस्त्राभूषणों से सत्कार किया. तत्पश्चात् उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति राम को अर्पण कर दी.


उस समय विभीषण की सारी सम्पत्ति में से राम को ‘कपिलवाराह’ की मूर्ति अच्छी लगी, जिसकी पूजा रावण स्वयं करता था. विभीषण ने राम को वह दे दी. उस मूर्ति के विषय में ऐसा सुना जाता है कि कपिल भगवान ने अपनी मनःशक्ति से उस मूर्ति की रचना की थी. बहुत दिनों तक कपिल मुनि ने स्वयं उसकी पूजा की. उसके बाद वह इन्द्र के हाथ लग गयी. जब रावण ने इन्द्र से संग्राम करके उन्हें पराजित किया, तब रावण उस मूर्ति को इन्द्र से छीन लिया और बहुत समय तक उसका पूजन करता रहा. आज उसे ही विभीषण ने राम को अर्पण कर दिया. राम ने बड़े प्रेम से उसे अपने पुष्पक विमान पर रखा. इसके पश्चात् राम और लक्ष्मणादि देवरों तथा कुश आदि बच्चों के साथ सीता उस वृक्ष के नीचे पहुंचीं, जहां रावण के हर ले जानेपर बहुत दिनों तक रह चुकी थी. वहां पहुंचकर सीता ने बतलाया कि यह वही स्थान है, जहां आपसे वियुक्त होकर मैं बहुत दिन तक रही.


इसके अनन्तर राम के दाहिने हाथ की उंगली पकड़कर सीता अशोक वाटिका में इधर-उधर घूमती हुई उन स्थानों को दिखलाने लगीं, जहां स्नानादि कृत्य करती थीं. घुमती-घूमती सीता त्रिजटा के स्थान पर पहुंची और विविध प्रकार के वस्त्रा–भूषणों से त्रिजटा का सत्कार किया. जब त्रिजटा प्रसन्न हो गयी तो विभीषण से सीता ने कहा- जिस समय राक्षसियां अपना भयानक मुंह दिखाकर मुझे डराती-धमकाती थीं, तब यह त्रिजटा ही मेरी रक्षा करती थी मैं तुमसे विनय पूर्वक कहती हूं कि सर्वदा तुम मेरी ही तरह इसका सम्मान करना. इतना कहकर सीता ने त्रिजटा का हाथ उनके के हाथों में थमा दिया.


इस तरह घूम-फिरकर राम सीता के साथ डेरे पर पहुंचे और लंका में मन्त्री को राज्य की देख-भाल करने के लिए छोड़कर विभीषण को अपने साथ लिए हुए ही अयोध्या को प्रस्थान कर दिया.  इसके अनन्तर राम पुष्पक विमान पर बैठे और अनेक देशों को देखते हुए अयोध्या को चल पड़े. अयोध्या पहुंचने पर प्रजा ने राम पर पुष्पों की वृष्टि की. इसके बाद राम अनेक महिपालों के साथ अपने सभा भवन में गए. सीता अपने महलों में चली गयीं. बाद में रामचन्द्रजी ने वहां ‘कपिलवाराह’ मूर्ति की स्थापना की. एक दिन रामचन्द्रजी ने प्रसन्न होकर वह शत्रुघ्न को दे दी.


इस प्रकार यहां सिद्ध होता हैं की सीता जी भी युद्ध में कौशल थीं और ये भी पता चलता है कि राम जी एक नहीं बल्कि तीन बार लंका गए थे. एक बार रावण को मारने, फिर पौण्ड्रक को मारने और अंत में सीता जी की सहायता से मुलकासुर का वध करने गए थे।


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