सनातन धर्म-संस्कृति में शंकराचार्य का नाम ऐसा है जिससे हर कोई वाकिफ है. उनका सारा जीवन सनातन धर्म के प्रसार-प्रचार और संरक्षण के महान कार्य में बीता. आज आदि गुरु शंकराचार्य की जयंती है. उनके द्वारा स्थापित चार मठ या धाम हों या द्वादश ज्योतिर्लिंग और पंच प्रयाग, या फिर उनका विराट दर्शन और साहित्य, 32 वर्ष की अल्पायु में महावतारी युगपुरुष ने जो पुरुषार्थ किया, वह समूची संस्कृति का वाहक बन गए.


गुरु शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को दक्षिण राज्य केरल के कालड़ी नामक ग्राम में ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उन्होंने केवल 32 वर्ष की आयु में अपना शरीर त्याग दिया था.


शंकराचार्य की कहानी


एक ब्राह्राण दंपति का विवाह होने के कई साल के बाद भी कोई संतान नहीं हुआ. उन्होंने परेशान होकर संतान प्राप्ति के लिए भगवान शंकर की आराधना की. तपस्या से खुश होकर भगवान शंकर ने उस ब्राह्मण दंपत्ति को वरदान मांगने को कहा.


ब्राह्राण दंपति ने भगवान शंकर से कहा कि उन्हें संतान चाहिए. एक ऐसा संतान जिसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैसले. इस पर भगवान शंकर ने कहा कि तुम्हारी संतान में कोई एक ही चीज हो सकती है, या तो वह दीर्घायु होगा या उसकी प्रसिद्धि होगी.


इसपर ब्राह्मण दंपत्ति ने दीर्घायु की बजाय सर्वज्ञ संतान की कामना की. इसके बाद ब्राह्मण दंपत्ति के घर एक बच्चे का जन्म हुआ. उन्होंने इस बालक का नाम शंकराचार्य रखा. शंकराचार्य जब मात्र तीन साल के थे तब पिता का देहांत हो गया. तीन साल की उम्र में ही उन्हें मलयालम का ज्ञान प्राप्त कर लिया था.


शंकराचार्य बचपन से ही सन्यासी बनना चाहते थे लेकिन मां एकमात्र बेटे को यह इजाजत कैसे दे सकती थी. हालांकि शंकराचार्य के संन्यासी बनने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है. एक बार वह नदी के किनारे थे कि तभी एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया. शंकराचार्य ने तुरंत अपनी मां से कहा कि उन्हें संन्यासी होने की अज्ञा दे वरना मगरमच्छ उनका पैर खा जाएगा. इसपर शंकराचार्य को मां ने आज्ञा दे दी.


आदि गुरु शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के दर्शन का विस्तार किया. उन्होंने सनातन धर्म का संरक्षण करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की. जो आज भी हिंदू धर्म के सबसे पवित्र मठ माने जाते हैं. उन्होंने उत्तर में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ, पश्चिम में द्वारिकाशारदा पीठ, दक्षिण में शृंगेरी पीठ और पूर्व में जगन्नाथपुरीगोवर्द्धन पीठ की स्थापना की.


दरअसल उस दौर में विभिन्न मतों से मिल रही चुनौती को उन्होंने अद्वैत से परास्त किया. आदि शंकराचार्य को अद्वैत का प्रवर्तक माना जाता है. उनका कहना था कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं. हमें अज्ञानता के कारण ही दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं.