Shardiya Navratri 2024: 2024 के शारदीय नवरात्रें चल रहे हैं. पूरे देश में अपनी अपनी परमपराओं अनुसार ‘शक्ति’ की आराधना का यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है. शक्ति की भक्ति से परिपूर्ण इस वातावरण में भगवती जगदंबा के स्वरूप का सरल शब्दों में वर्णन करना अपरिहार्य हो जाता है. शक्ति को ‘माता’ नाम से भी संबोधित किया जाता है. आदि शक्ति के 108 शक्तिपीठों में ‘माता’ नामक एक शक्ति पीठ भी है.
सृष्टि में माता का स्थान सर्वोपरि माना जाता है. माँ की ममता की महिमा अपरंपार है. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हर व्यक्ति अपनी सर्वाधिक श्रद्धा अपनी माता के ही चरणों में अर्पित करता है. इसके पीछे का कारण है कि व्यक्ति को दुनिया का प्रथम दर्शन माता की ही ममतामयी गोदी से होता है. माता ही सभी प्राणियों की प्रथम अथवा आदि गुरु का स्थान सुशोभित करती है. माता की करुणा और कृपा ही बच्चों के लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण का आधार है.
कदाचित यही कारण है कि ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव’ जैसे शास्त्र सम्मत वाक्यों में सबसे पहले माता का ही स्थान आता है. महाशक्ति जगदम्बा का स्वरुप विराट है. माता भगवती अपने इस विराट स्वरुप के बारे में देवी भागवत पुराण में स्वयं वर्णन करती हैं. शारदीय नवरात्रों के इस पावन पर्व में आइये स्तंभकार और धार्मिक विषयों के जानकार डॉ. महेंद्र ठाकुर से जानते हैं भगवती के इस विराट स्वरुप के बारे में.
देवी भागवत पुराण में भगवान ब्रह्मा के प्रश्नों का उत्तर देते हुए देवी भगवती जगदम्बा कहती हैं, “मैं और परब्रह्म सदा एक ही हैं, हमारे बीच कोई भेद नहीं है; क्योंकि जो वे हैं, वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वही वे हैं. केवल बुद्धि के भ्रम से ही हम दोनों में भेद दिखायी पड़ता है. सृष्टि के प्रलयकाल में मैं न स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ और न ही नपुंसक हूँ. परंतु जब पुनः सृष्टि होने लगती है, तब पूर्ववत् यह भेद बुद्धि के द्वारा उत्पन्न हो जाता है.
मैं ही बुद्धि, श्री, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, दया, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शान्ति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, वाञ्छा, शक्ति, अशक्ति, वसा, मज्जा, त्वचा, दृष्टि, सत्यासत्य वाणी, परा, मध्या, पश्यन्ती आदि वाणी के भेद और जो विभिन्न प्रकारकी नाड़ियाँ हैं- वह सब मैं ही हूँ. इस संसार में मैं क्या नहीं हूँ और मुझसे अलग कौन-सी वस्तु है ? इसलिये ब्रह्मा जी आप यह निश्चित रूप से जान लीजिये कि सब कुछ मैं ही हूँ”.
“इस सृष्टि में सर्वत्र मैं ही व्याप्त हूँ. निश्चित ही मैं समस्त देवताओं में भिन्न-भिन्न नामों से विराजती हूँ तथा शक्ति रूप से प्रकट होती हूँ और पराक्रम करती हूँ. मैं ही गौरी, ब्राह्मी, रौद्री, वाराही, वैष्णवी, शिवा, वारुणी, कौबेरी, नारसिंही और वासवी शक्ति के रूप में विद्यमान हूँ. सब कार्यों के उपस्थित होने पर मैं उन देवताओं में प्रविष्ट हो जाती हूँ और देव विशेष को निमित्त बनाकर सब कार्य सम्पन्न कर देती हूँ.
जल में शीतलता, अग्नि में उष्णता, सूर्य में प्रकाश और चन्द्रमा में ज्योत्स्ना के रूप में मैं ही इच्छानुसार प्रकट होती हूँ. संसार का कोई भी जीव मेरे बिना स्पन्दन भी करने में समर्थ नहीं हो सकता. इसी प्रकार यदि मैं शिव को छोड़ दूँ तो वे शक्ति हीन होकर दैत्यों का संहार करने में समर्थ नहीं हो सकते. इसीलिये तो संसार में भी अत्यन्त दुर्बल पुरुष को लोग शक्तिहीन कहते हैं.
लोग अधम मनुष्य को विष्णुहीन या रुद्रहीन नहीं कहते बल्कि उसे शक्तिहीन ही कहते हैं. जो गिर गया हो, स्खलित हो गया हो, भयभीत हो, निश्चेष्ट हो गया हो अथवा शत्रु के वशीभूत हो गया हो, वह संसार में अरुद्र नहीं कहा जाता, अपितु अशक्त ही कहा जाता है”.
“ब्रह्मा जी आप भी जब सृष्टि करना चाहते हैं तब उसमें शक्ति ही कारण है. जब आप शक्ति से युक्त होते हैं तभी सृष्टिकर्ता हो पाते हैं. इसी प्रकार विष्णु, शिव, इन्द्र, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, यम, विश्वकर्मा, वरुण और वायुदेवता भी शक्ति-सम्पन्न होकर ही अपना-अपना कार्य सम्पादित करते हैं. पृथ्वी भी जब शक्ति से युक्त होती है, तब स्थिर होकर सबको धारण करने में समर्थ होती है.
यदि वह शक्तिहीन हो जाय तो एक परमाणु को भी धारण करने में समर्थ न हो सकेगी. शेषनाग, कच्छप एवं दसों दिग्गज मेरी शक्ति पाकर ही अपने-अपने कार्य सम्पन्न करने में समर्थ हो पाते हैं. यदि मैं चाहूँ तो सम्पूर्ण संसार का जल पी जाऊँ, अग्नि को नष्ट कर दूँ और वायु की गति रोक दूँ, मैं जैसा चाहती हूँ वैसा करती हूँ”.
ब्रह्मा जी से ऐसा कहने के बाद देवी भगवती कहती हैं, “जब कभी भी देवताओं के समक्ष दैत्यों से भय उत्पन्न होगा, उस समय सुन्दर रूपों वाली वाराही, वैष्णवी, गौरी, नारसिंही, सदाशिवा तथा अन्य देवियों के रूप में मेरी शक्तियाँ प्रकट होकर उनका भय दूर कर देंगी”. देवी भगवती ने अपनी शक्ति स्वरुप महासरस्वती को ब्रह्मा जी को, महालक्ष्मी को विष्णु जी को और महाकाली गौरी को भगवान शंकर को सौंपा.
शारदीय नवरात्रों में देवी के विराट स्वरुप का पाठ करने का विशेष महत्त्व है. वास्तव में महाशक्ति ही परब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जो विभिन्न रूपों में अनेक लीलाएँ करती रहती हैं. उन्हीं की शक्ति से ब्रह्मा विश्व का सृजन करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार करते हैं, अतः ये ही जगत् का सृजन-पालन-संहार करने वाली आदिनारायणी शक्ति हैं.
ये ही महाशक्ति नौ दुर्गाओं तथा दस महाविद्याओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं और ये ही महाशक्ति देवी अन्नपूर्णा, जगद्धात्री, कात्यायनी, ललिता तथा अम्बा हैं। गायत्री, भुवनेश्वरी, काली, तारा, बगला, षोडशी, त्रिपुरा, धूमावती, मातंगी, कमला, पद्मावती, दुर्गा आदि देवियाँ इन्हीं भगवती के ही रूप हैं. ये ही शक्तिमती हैं और शक्ति हैं, ये ही नर हैं और नारी भी हैं.
शक्ति से रहित हो जाना ही शून्यता है. शक्ति हीन मनुष्य का कहीं भी आदर नहीं किया जाता है. ध्रुव तथा प्रह्लाद भक्ति-शक्ति के कारण ही पूजित हैं. गोपिकाएँ प्रेम शक्ति के कारण ही जगत में पूजनीय हुईं. हनुमान तथा भीष्म की ब्रह्मचर्य शक्ति, वाल्मीकि तथा व्यास की कवित्व शक्ति, भीम तथा अर्जुन की पराक्रम शक्ति, हरिश्चन्द्र तथा युधिष्ठिर की सत्य शक्ति ही इन महात्माओं के प्रति श्रद्धा-समादर अर्पित करने के लिये सभी लोगों को प्रेरणा प्रदान करती है.
सभी जगह शक्ति की ही प्रधानता है. श्रीमद देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के अध्याय 15 के श्लोक 52 में देवी भगवती स्वयं उद्घोष करती हैं ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्’ अर्थात् समस्त जगत् मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी सनातन तत्त्व नहीं है.
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