Mahabharat Ki Katha, Krishna Yudhisthira Atma Tatva Updesh: ईश्वर ही इस संसार के सृष्टिकर्ता, संहारकर्ता और पालनकर्ता हैं. वे ऐसे सूत्रधार हैं जो पर्दे के पीछे रहकर पूरे संसार को देखते हैं. यही कारण है कि मनुष्य स्वयं को संसार का कर्ता मानकर अहंकार करने लगता है, जोकि उसकी सबसे बड़ी भूल है.


परमात्मा के दर्शन न होने का मतलब यह नहीं कि परमात्मा है ही नहीं. जिस प्रकार पहली बार गोता लगाने से यदि आपको मोती न मिले तो इसका मतलब यह नहीं कि समुद्र में मोती है ही नहीं. ठीक इसी तरह परमात्मा हर जगह है लेकिन वे हमें दिखाई नहीं देते. गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नहीं होता, लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं? क्योंकि मैं योगमाया से अपने आपको ढक लेता हूं.’


महाभारत की कथा


एक बार पांडवों का राजसूय यज्ञ चल रहा था. यज्ञ में दूर-दूर से राजा-महाराजा और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आए हुए थे. सभी के बीच जब वार्तालाप चल रही थी, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने बातों-बातों में कह दिया कि, ‘मुझे अब तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए हैं.’ जबकि श्रीकृष्ण वहीं मौजूद थे. लेकिन उन्हें यह लगता था कि ये केवल उनके मामा के लड़के हैं.


युधिष्ठिर की बात सुनकर नारद जी बोले, ‘विश्व को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा के पिता इसी सभा में हैं’ युधिष्ठिर ने कहा-‘कहां हैं? मुझे तो कहीं दिखाई नहीं देते हैं’


परमात्मा के सानिध्य में रहते हुए भी क्यों परमात्मा को नहीं पहचान सके पांडव


श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ कई दिनों से रह रहे थे. लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें कोई पहचान नहीं सका था. किसी को यह पता नहीं था कि श्रीकृष्ण ही साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं. पांडव कृष्ण को केवल अपने मामा का लड़का ही समझते थे.


श्रीकृष्ण ने नारद जी की ओर चुप रहने का इशारा किया. किंतु नारद जी से रहा नहीं गया और वे सोचने लगे कि परमात्मा के बीच रहकर भी युधिष्ठिर परमात्मा को पहचान नहीं सके. मैंने तो इनके घर का अन्न खाया है और ब्राह्मण जिनके घर का अन्न खाते हैं, उसका कल्याण करना उनका कर्तव्य होता है. इसलिए आज मुझे इन्हें परमात्मा के प्रकट रूप के बारे में बताना ही होगा, फिर चाहे परमात्मा मुझसे नाराज ही क्यों न हों.


नारद जी युधिष्ठिर से बोले- राजन्! दुर्वासा, जमदग्नि, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि सभी यहां किसी लोभ से नहीं आए. बल्कि ये सभी तो यहां परब्रह्म परमात्मा के दर्शन के लिए पधारे हैं, जो यहां विराजमान हैं. आप बहुत सौभाग्यशाली हैं जो आपकी सभा में परमात्मा भी उपस्थित है. तब नारद जी श्रीकृष्ण की ओर इशारा करते हुए बोले- अयम् ब्रह्म’. यानी, ये ही ब्रह्म हैं. हम सभी ऋषिगण इन्हीं के दर्शन करने यहां आए हैं.’


लेकिन श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए यह कहा कि, ‘मैं ब्रह्म नहीं हूं. नारदजी को तो झूठ बोलने की आदत है.’ तब धर्मराज युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से आत्म तत्व का उपदेश देने को कहते हैं.


श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को आत्म तत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं-


धर्म की स्थापना और पापियों के विनाश के लिए मैंने अपनी माया से मानव शरीर में अवतार धारण किया है. जो लोग मुझे केवल मनुष्य समझकर मेरी अवहेलना करते हैं वे लोग मूर्ख हैं. मैं ही देवताओं का आदि हूं और मैंने ही ब्रह्मा आदि देवताओं की सृष्टि की है. मैं ब्रह्मा से लेकर छोटे कीड़े में भी हूं.


कृष्ण अपना स्वरूप बताते हुए कहते हैं..


द्युलोक मेरा मस्तक, सूर्य और चन्द्रमा मेरी आंखें, गौ अग्नि, ब्राह्मण मेरे मुख, वायु मेरी सांसे, आठ दिशाएं मेरी बांहें, नक्षत्र मेरे आभूषण और अंतरिक्ष मेरा वक्ष स्थल है. मेरे एक नहीं बल्कि हजारों मस्तक हैं, हजारों मुख, हजारों नेत्र, हजारों भुजाएं, हजारों उदर, हजारों उरु और हजारों पैर हैं. मैं पृथ्वी को सब ओर से धारण करके समस्त ब्रह्मांड से बहुते ऊपर विराजमान हूं. 


प्रलयकाल में समस्त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्थापित कर दिव्य योग का आश्रय लेकर मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूं. मैं एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूरी होने तक महार्णव में शयन करके उसके बाद जड़ चेतन प्राणियों की सृष्टि करता हूं. सभी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं. लेकिन सभी मेरी माया से मोहित होने के कारण मुझे नहीं जान पाते. कहीं भी और कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें मैं व्याप्त नहीं हूं. भूत, भविष्य और जो कुछ है सभी मैं ही हूं.’


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