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विज्ञान जहां समाप्त होता है, क्या वहीं से होती है अध्यात्म की शुरुआत, क्या है हकीकत

Spirituality and Science: क्या वास्तव में अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे से अलग है, जहां विज्ञान समाप्त होता है वहां से अध्यात्म की शुरुआत होती है ? आइए स्तंभकार से समझने का प्रयास करते हैं.

Difference Between Religion and Science: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और ट्वीट की तेज गति से चलने वाली इस दुनिया में अनेक विमर्श चलते रहते हैं. ऐसा ही एक विमर्श विज्ञान बनाम अध्यात्म को लेकर चलता रहता है. चलना भी चाहिए क्योंकि जितना अधिक मंथन होगा सत्य उतना ही प्रकट होगा. लेकिन, एक वृत्ति वर्तमान समय में बढ़ती जा रही है और वह वृत्ति है हर चीज को विज्ञान के चश्में से देखना और जब विज्ञान के हिसाब चीजें समझ नहीं आती हैं या समझाई नहीं जाती हैं या समझाना कठिन होता है तो लोग उन्हें नकार देते हैं या अंधविश्वास अथवा पाखंड का ठप्पा लगा देते हैं.

स्तंभकार डॉ. महेंद्र ठाकुर के अनुसार यहीं से ‘भेद’ नामक विनाशकारी खेल शुरू होता है. यहीं से ‘नियंत्रण’ करने की वृत्ति उत्पन्न होती है. लेकिन, इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि अनंत ब्रहांड में ऐसी ‘अनंत’ चीजें हैं जिनके बारे में आज का विज्ञान नहीं जानता है. आधुनिक विज्ञान की यात्रा जारी है. जबकि भारतीय ज्ञान परंपरा अथवा हिन्दू धर्म शास्त्र उन चीजों के बारे में विस्तार से बताते हैं.

वास्तव में, यह समस्या पूरब और पश्चिम जगत के दृष्टिकोण के अंतर के कारण उपजी है. विज्ञान को अंग्रेजी भाषा में साइंस कहा जाता है. इस साइंस को समझने के लिए पाश्चत्य जगत के दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है और इसके साथ ही सनातन धर्म, परंपराओं अथवा जीवन पद्धति पर आधारित भारतीय दृष्टिकोण को भी समझना आवश्यक है.

जहाँ तक पाश्चत्य जगत के दृष्टिकोण की बात है तो वह आधारित है ‘यूज़ एंड थ्रो’ के विचार पर, भौतिक उन्नति पर, प्रकृति के शोषण पर. अर्थात् जो कुछ भी करना है वह भोग के लिए करना है. ऐसा भी कहा जा सकता है कि बाइबिल और चर्च या कुरआन और मस्जिद से आगे उनकी रेखा नहीं जाती है. लेकिन, हिन्दू धर्म शास्त्र बड़ी संख्या में हैं. शास्त्रों की बड़ी संख्या और अनेक (33 कोटि) देवी-देवता ‘नेति-नेति’ के सनातन और भारतीय दृष्टिकोण के सूचक हैं.

सनातन परंपरा में कोई अंतिम बिंदु नहीं है. किसी को पुर्णतः नकारा नहीं जाता है. ऋग्वेद में ‘एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति’ इसी बात का सूचक है. सनातन में निरंतरता है, कोई एंड पॉइंट नहीं है. सीधी रेखा जैसा कुछ भी नहीं हैं, बल्कि सब चक्रीय है.

विज्ञान और अध्यात्म पर होने वाले विमर्श में लोग इन दोनों में अंतर करते हैं, इन्हें एक दूसरे का पूरक भी बताते हैं. लोग यहाँ तक भी कहते हैं कि जहाँ विज्ञान समाप्त होता है वहीं से अध्यात्म प्रारंभ होता है. अपने अपने हिसाब से तर्क दिए जाते हैं. हम यहाँ ऐसी किसी बहस में नहीं पड़ने वाले. इस आलेख में विज्ञान और अध्यात्म का भारतीय दृष्टि से विश्लेषण करने का गिलहरी प्रयास किया गया है.

विज्ञान और अध्यात्म के इस विश्लेषण से पहले हमें ‘प्रकृति’ को समझने की आवश्यकता है. क्योंकि मनुष्य प्रकृति में रहता है. या यूँ कहें प्रकृति ही मानवता की जननी है, जीवनदायिनी और पालनहार भी है. यदि प्रकृति नहीं है तो मनुष्य भी नहीं होगा और न ही विज्ञान और अध्यात्म होगा.

मनुष्य का जीवन प्रकृति की गोद में ही फलता-फूलता है. प्रकृति में ही जीवन के रहस्य छिपे हुए हैं. इसी प्रकृति से हमारे ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक चेतना ग्रहण की. इसी प्रकृति के रहस्यों को जानने के लिए आज की साइंस या विज्ञान उद्यमरत है.

 बड़े विशिष्ट शब्दों में कहना हो तो विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान अथवा विद्या है, जो विचार अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से प्राप्त होती है। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिए किया जाता है जो तथ्य और सिद्धांत से स्थापित और व्यवस्थित होती है. कह सकते हैं कि किसी भी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान ही विज्ञान है.

अंग्रेजी भाषा में ‘साइंस’ की परिभाषा कुछ ऐसी है ,‘the study of and knowledge about the physical world and natural laws’ अर्थात् भौतिक जगत और प्रकृति के नियमों का अध्ययन और ज्ञान’. इस परिभाषा में ‘प्रकृति के नियमों का अध्ययन और ज्ञान’ वाक्य विज्ञान के लिए प्रकृति के होने की अपरिहार्यता बताता है. जहाँ तक भौतिक जगत की बात है तो यह प्रकृति का बाह्य रूप है. त्रिगुणों (सत, रज, तम) से प्रभावित इसी प्रकृति के बारे में श्रीमद भगवत गीता में विस्तार से बताया गया है.

विज्ञान को ही सर्वस्व मानने वालों के लिए यहाँ एक संकेत पर्याप्त है कि विज्ञान प्रकृति के भीतर ही घूमता है और यह विराट प्रकृति इतनी रहस्यपूर्ण ढंग से परिवर्तनशील है कि विज्ञान को भी स्वयं ही अवधारणा बदलते रहना पड़ता है। ऐसे अनेक उदाहरण आज उपलब्ध हैं. जहाँ तक विज्ञान की बात है तो यह सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों में मिलता है. लेकिन, भारतीय ऋषियों ने जिन प्राकृतिक रहस्यों को हजारों-लाखों वर्ष पूर्व उ‌द्घाटित किया था, वे कुछ समय पूर्व तक कपोल कल्पित माने जाते थे.

अब पश्चिम जगत का आधुनिक विज्ञान उसे ही अपनी खोज मानता है. भारतीय विज्ञान की विवेचना जटिल कार्य है क्योंकि वह धर्म और दर्शन में घुला-मिला है. इसे समझने के लिए गहराई में उत्तरना होता है. गहराई में उतरना ही ‘अध्यात्म’ की शुरुआत है. पश्चिम जगत का विज्ञान सतही और उपभोग के लिए अधिक है, जबकि भारतीय ज्ञान जीवनदर्शन है. वह अध्यात्म से जोड़ता है और हमें प्राकृतिक बनाए रखता है.

विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान. लेकिन, प्रश्न उठता है कि किसका विशेष ज्ञान ? जब उत्तर ढूढेंगे तो पता चलेगा कि यह प्रकृति का ही विशेष ‘ज्ञान’ है. जिस ज्ञान को हम अंतिम सत्य मान लेते हैं, वह सिर्फ और सिर्फ प्रकृति की प्रवृत्ति है. उसका स्वभाव है, उसके गुण हैं और शक्ति है। इस शक्ति, प्रवृत्ति, प्रकृति को ही हम जानकर अपने हिसाब से परिभाषित करते रहते हैं. लेकिन, हम कभी यह नहीं सोचते कि प्रकृति से विज्ञान है, विज्ञान से प्रकृति नहीं.  

लोभ के कारण यह विशेष ज्ञान अर्थात् विज्ञान विनाश का कारण बनने लगता है. लोभ के कारण हम नजरअंदाज कर जाते हैं कि प्रकृति का कुछ और भी स्वभाव है. वह संतुलन बनाए रखती है. असंतुलन उसे स्वीकार नहीं है. वह अपने विरुद्ध जाने वालों को स्वीकार नहीं करती. यहाँ तो उसी का अस्तित्व बचता है, जो प्रकृति के नियमों को समझते हुए, इसे मानते हुए उसके अनुरूप चलता है और उसके अनुसार स्वयं को ढालता ह क्योंकि प्रकृति आपकी इच्छानुसार ढलने को तैयार नहीं है.

वैसे ‘साइंस’ शब्द बहुत पुराना नहीं. पूर्व में अधिकांश शोध करने वाले दर्शनशास्त्र से संबंधित थे और प्रकृति को दर्शन से अधिक समझा जा सकता है, विज्ञान से नहीं. जब तक प्रकृति दर्शन के द्वारा देखी जाती थी तब तक सब कुछ विकासशील था और जैसे ही हमने प्रकृति को आधुनिक विज्ञान के नजरिए से देखना शुरू किया, यह विनाशकारी हो चली है.

प्रकृति के संतुलन को बनाये रखना या प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलना ही भारतीय दर्शन है, इसे हिन्दू धर्म शास्त्रों में ‘सदाचार’ भी कहा गया है. इसे ‘अध्यात्म’ भी कहा जा सकता है. हिन्दू धर्म शास्त्र, ऋषि-मुनियों की वाणी और संतों के अमृत वचन प्रकृति की महत्ता से भरे पड़े हैं. प्रकृति के महत्त्व को दर्शाते हुए हिन्दू धर्म शास्त्रों में जलाशयों के निर्माण, वाटिका निर्माण, वृक्ष लगाने का महत्त्व बताया गया है, बल्कि इसे दान के साथ जोड़ा गया है.

भारतीय दर्शन या सनातन धर्म और हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार ज्ञान का मूल स्त्रोत वेदों को माना जाता है. वेदों के ज्ञान को ही अन्य सभी शास्त्रों में सरल करके उद्घाटित किया गया है. धर्म शास्त्रों के मर्मज्ञ महर्षियों ने वेदों के अध्ययन के लिए दो तत्त्वों अथवा आंतरिक गुणों को अपरिहार्य माना है और वह तत्त्व हैं ‘श्रद्धा और साधना’. साधना को तप या तपस्या भी कहा जाता है. महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 57 के श्लोक 9 में कहा गया है:

ज्ञानं विज्ञानमारोग्यं रूपं सम्पत् तथैव च।

सौभाग्यं चैव तपसा प्राप्यते भरतर्षभ ॥

अर्थात्:  ‘ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, रूप, सम्पत्ति तथा सौभाग्य भी तपस्या से प्राप्त होते हैं.’

 

उक्त श्लोक में जिस तपस्या या तप की बात की गई है वही ‘अध्यात्म’ है. अध्यात्म का अर्थ है आत्मा का अध्ययन. सारे हिन्दू धर्म शास्त्र इस अध्यात्म के इर्द-गिर्द घूमते हैं. यद्यपि, उनमें जीवनोपयोगी भोग उपभोग के बारे में भी बताया है, लेकिन नियमबद्ध तरीके से. उसे ही सदाचार कहा गया है. श्रीमद भगवत गीता तो पुर्णतः आत्मा के अध्ययन पर ही आधारित है. यह आत्मा और परमात्मा का संवाद है.

भ्रमित अथवा मोहित या करुणा या दया के अतिरेक के कारण एक अर्जुन (आत्मा) स्वयं को शरीर समझकर धर्मच्युत हो गए थे. परमात्मा उन्हें गीता के माध्यम से धर्म मार्ग पर लाये. अध्यात्म का मतलब है अन्तः करण की शुद्धि. आत्म-साक्षात्कार. प्रकृति के साथ समन्वय बनाये रखने के लिए ‘अध्यात्म’ ही एकमात्र साधन है. जब व्यक्ति भौतिक दृष्टि से ही सोचता और कृत्य करता है तो प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है और फिर होता है विनाश. हिन्दू धर्म शास्त्रों में योग, साधना या तपस्या इसी ‘अध्यात्मिक वृत्ति’ को जागृत रखने के लिए बताई गई है.

वास्तव में, अध्यात्म का लक्ष्य क्या है? थोड़ा चिंतन करेंगे तो उत्तर मिलेगा कि मनुष्य की आंतरिक शक्तियों और वृत्तियों का मनोवैज्ञानिक पद्धति से इतना उत्थान करना कि मनुष्य के जीवन में देवत्व का प्रकाट्य होने लगे। देवत्व का प्राकट्य का अर्थ है दैवीय गुणों का प्रकट होना. ये दैवीय गुण श्रीमद भगवत गीता के अध्याय 16 के श्लोक संख्या 1, 2, 3 में बताये गए हैं.

हिन्दू धर्म शास्त्रों में मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘मोक्ष’ या ‘मुक्ति’ या ‘परमात्मा का साक्षात्कार’ बताया गया है. इसके लिए ‘पात्रता’ पर विशेष बल दिया गया है. मुक्ति के लिए मनुष्य में ‘दैवीय गुणों’ का होना आवश्यक बताया गया है. और जब तक ‘मुक्ति’ नहीं होती तब तक 84 लाख योनियों में ‘जन्म’, ‘मृत्यु’ और  ‘पुनर्जन्म’ का चक्र चलता रहा है.

महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ होना इसी बात का प्रमाण है कि दैवीय गुणों से भगवान का साक्षात्कार हो सकता है. श्रीमद भगवत गीता के अध्याय 16 के पांचवे श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से यही प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि हे पांडूपुत्र! तुम चिंता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त हो.

अध्यात्म मनुष्य को दैवी गुणों से सम्पन्न कराता है. अध्यात्मिक व्यक्ति अर्जुन की तरह हो सकता है. भगवान राम ने अध्यात्मिक रूप से जीवन व्यतीत किया. और विज्ञान के साधकों (नल नील ने सेतु बनाकर, सुशेण ने चिकित्सा करके, पुष्पक विमान के उपयोग आदि) ने उनकी सेवा की.

अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी भी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करता. वस्तुतः वह अपने नैसर्गिक अथवा प्राकृतिक स्वाभाव में रहता है. वह कभी भी विनाश का खेल नहीं खेलता और यदि कुछ करता भी है तो वह प्रकृति को स्वीकार होता है. और नव सृजन होता है.

एक बात ध्यान रखने की है कि केवल ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ शाश्वत अथवा सनातन हैं, जबकि प्रकृति में कुछ भी शाश्वत नहीं है, केवल नष्ट होना ही ‘शाश्वत’ है. नष्ट होने के इस मार्ग में कोई पूर्ण विराम नहीं है. बल्कि यहाँ रूप अथवा स्वरुप बदलता है. उपयोगिता भी बदलती रहती है. सब कुछ परिवर्तनशील है, इसलिए विद्वान कहते भी हैं कि ‘परिवर्तन प्रकृति का नियम है.’

प्रकृति और विज्ञान में मूल अंतर क्या है? विचार करेंगे तो पाएंगे कि जो प्राकृतिक है वो कचरा नहीं है या प्रकृति में कुछ भी कचरा अथवा व्यर्थ नहीं है. हर प्राकृतिक चीज एक चक्र (भोजन चक्र, जल चक्र, ऋतू चक्र आदि) में है और उपयोगी है. प्रकृति में किसी के लिए अनुपयोगी चीज दूसरे के लिए उपयोगी बन जाती है. दूसरी तरफ विज्ञान द्वारा बनाया हुआ सब कुछ एक दिन कचरा हो जाता है, व्यर्थ हो जाता है.

प्रश्न उठेगा कि यह कचरा क्या है? उत्तर मिलेगा, एक समय तक जो हमारे लिए उपयोगी था, वह अनुपयोगी होने पर हमारे लिए कचरा अथवा व्यर्थ बन जाता है. अर्थात् विज्ञान सिर्फ और सिर्फ कचरा पैदा कर रहा है। वह कचरा, जो कभी खत्म नहीं होता या नष्ट नहीं होता.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि विज्ञान ने विकास तो किया है, सुविधाएँ भी दी है. लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि ‘समस्याएँ’ भी तो खड़ी की है. हर तरह का प्रदुषण, ग्लोबल वार्मिंग, प्लास्टिक की समस्या और तरह-तरह की घातक बीमारियाँ, किसकी देन हैं? बड़े-बड़े शहरों में मिलने वाले ‘कचरा पहाड़’ किसी देन हैं? क्या इस बात को नकारा जा सकता है कि समाधान के लिए जो उपाय सुझाए जाते हैं, वे एक नई समस्या पैदा करते हैं?

विज्ञान के पक्ष में सुख-सुविधा और चिकित्सा के कुछ उपायों को लेकर दिए जाने वाले तर्क अंतिम नहीं हो सकते, क्योंकि ‘विज्ञान की संस्कृति ही हमें बीमार भी कर रही है’. विज्ञान से जितनी सुख सुविधा बढ़ रही है, मानव में मानवीय गुण उतने ही समाप्त होते जा रहे हैं. मनुष्य के कष्ट उतने ही बढ़ते जा रहे हैं. बढ़ते हुए अस्पतालों और दवाईयों की संख्या यही संदेश दे रही है.

जबकि प्रकृति की हर चीज एक समय के बाद मिटटी में मिल जाती है या मिटटी बन जाती है। फिर इसी मिट्टी से नव सृजन होता है. जबकि विज्ञान का कचरा मिट्टी नहीं बनता. सब मिट्टी में मिल जाना ही प्रकृति का सर्वोत्तम गुण है. इसी गुण के कारण सृष्टि चक्र चल रहा है. वहीं हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार ‘आत्मा का परमात्मा’ से मिलन या ‘आत्मा द्वारा परमात्मा की सेवा’ ही ‘अध्यात्म’ है. अध्यात्मिक मनुष्य हर प्रकार के भेद से परे हो सकता है.

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का जो वाक्य भारत की भूमि से गूंजता है वह अध्यात्मिक है. महोपनिषद में विदेहराज जनक और शुकदेव स्वामी के अध्यात्मिक संवाद में आया यह वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ मूल प्रकृति के साथ समन्वय और आत्मा से परमात्मा के ‘मिलन’ अथवा ‘योग’ या ‘एकत्व’ का सूचक है. यही अध्यात्मिक वृत्ति है. इसलिए आज जिसे भी हम अध्यात्मिक वृत्ति का व्यक्ति कहते हैं वे हमेशा योगमय रहते हैं. उनका जीवन बहुत सरल और प्राकृतिक होता है. उनकी दिनचर्या बहुत संतुलित और सदाचारपूर्ण होती है. उनसे समाज और प्रकृति को कोई खतरा नहीं होता है. क्योंकि वे दैवी गुणों से सम्पन्न होते हैं या उन गुणों को अर्जित करने के मार्ग पर चल रहे होते हैं. 

अध्यात्म हर जगह, हर कण, हर व्यक्ति, हर जीव को एक ही ईश्वर के अंश के रूप में देखता है. अध्यात्म भेद नहीं करता. विज्ञान की तरह अध्यात्म हर चीज पर नियन्त्रण करने की कोशिश नहीं करता. बल्कि अध्यात्म मनुष्य को भौतिक सुख को गौण मानने और इंद्रिय निग्रह करने के लिए प्रेरित करता है. अध्यात्म मनुष्य की आंतरिक यात्रा है. इसके लिए आज के विज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है. एक अध्यात्मिक व्यक्ति एक सफल वैज्ञानिक हो सकता है, लेकिन ये जरूरी नहीं है कि एक वैज्ञानिक अध्यात्मिक व्यक्ति हो.   

कुल मिलाकर सार रूप में कहा जाये तो तर्क और प्रमाण पर आधारित विज्ञान अथवा भौतिक विद्या या शक्ति से  व्यवस्थित तरीके से अनुसन्धान करके मनुष्य बाह्य जगत को समझ सकता है, यह समझ अथवा अवधारणा समय के साथ बदल भी सकती है और इसी शक्ति से वह जीवन निर्वाह भी कर सकता है. इससे कचरा भी उत्पन्न होगा, विनाश भी होगा, बीमारियाँ भी होंगी, कोरोना भी आएगा, कैंसर भी होगा, इलाज भी होगा और उस इलाज से कोई और समस्या भी होगी. और विज्ञान का ये क्रम महाविनाश अर्थात् प्रलय तक चलता रहेगा.

जबकि, अध्यात्म से मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का विकास होगा और श्रीमद भगवत गीता में वर्णित दैवीय गुण सृजित होंगे. जिनके कारण मनुष्य प्रकृति के साथ समन्वय करके रह सकता है. मनुष्य सबको ‘एकात्म’ भाव से देखेगा. कोई भेद नहीं करेगा. अपने उत्थान के साथ-साथ सबके उत्थान के लिए काम करेगा. अध्यात्म ही ‘धर्म की जय हो’, ‘अधर्म का विनाश हो’, ‘प्राणियों में सद्भवाना हो’ और ‘विश्व का कल्याण हो’, सनातन हिन्दू धर्म के इस कल्याणकारी उद्घोष का आधार है.

प्रकृति के साथ समन्वय ही ‘शतायु भव’ के आशीर्वचन को सार्थक करेगा. इसके लिए ‘अध्यात्म’ एक मूल साधन है, वहीं विज्ञान को पूर्ण रूप से प्राकृतिक होने की आवश्यकता है.

नारायणायेती समर्पयामि.....

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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