Mahabharat : महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व की कथा अनुसार युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध जीतकर 36 साल हस्तिनापुर पर राज किया. जब कृष्णजी ने देह त्याग की तो युधिष्ठिर ने भी समझ लिया कि अब उनका भी पृथ्वी से चलने का समय आ चुका है. वे परीक्षित को राज-पाट सौंप कर भाइयों और द्रौपदी समेत सशरीर स्वर्ग को प्रस्थान कर गए.
स्वर्गलोक में युधिष्ठिर ने देखा कि दुर्योधन तेजस्वी देवताओं के साथ दिव्य सिंहासन पर सूर्य के समान चमक रहा है. इस पर क्रोध से भरे युधिष्ठिर दूसरी ओर मुड़ गए और बोले, देवताओं! जिसके चलते हमने अपने रिश्तेदारों-भाइयों को संहार कर डाला और पृथ्वी उजाड़ दी. जिसने हमलोगों को भारी क्लेश दिया और उस लोभी-अधर्मी दुर्योधन संग रहकर पुण्यलोक की इच्छा नहीं रख सकता. मेरी वहां जाने की इच्छा है, जहां मेरे भाई हैं.
युधिष्ठिर की बातें सुनकर नारदजी ने कहा, धर्मराज स्वर्ग में रहने पर पूर्व की दुश्मनी खत्म हो जाती है. तुम्हे दुर्योधन के लिए ऐसी बात नहीं करनी चाहिए. दरअसल दुर्योधन ने कुरुक्षेत्र युद्ध में शरीर की आहुति देकर वीरों की गति पाई है, जिन्होंने युद्ध में देवतुल्य तेजस्वी तुम भाइयों का डटकर सामना किया है, दुर्योधन सबसे अधिक भय के समय भी निर्भय बना रहा. उसने क्षत्रिय धर्म अनुसार तुमसे युद्ध किया और अधर्म का भागीदार होते हुए भी यहां है.
इस दौरान भीम ने युधिष्ठिर से पूछा कि भैया दुर्योधन ने पूरी जिंदगी पाप किया. फिर इसे स्वर्ग क्यों मिला. तब युधिष्ठिर ने उन्हें बताया कि दुर्योधन का ध्येय अपने पूरे जीवन में एकदम स्पष्ट था. उसे ही पूरा करने के लिए उसने हर संभव काम किए. उसे बचपन से अच्छे संस्कार नहीं मिले, इसलिए वह सत्य का साथ नहीं दे पाया, मगर कितनी भी बाधाओं के बावजूद वह अपने मकसद पर कायम रहा. यही उसकी अच्छाई रही, जिसके चलते उसे सारे अधर्म काम करने के बाद स्वर्ग मिला. इसके बाद पांडव संतुष्ट हो गए और जिस दुर्योधन के साथ वह धरती पर सुखी नहीं रहे उसके साथ बड़े ही सुख से स्वर्ग में समय बिताया.
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