Union Budget 2024: प्रत्येक राज्य के संचालन और रख रखाव में धन का उपयोग प्रचुर मात्रा में होता है. इस अर्थ के उपार्जन में शासन द्वारा लिए जाने वाले कर की आमदनी राजाओं द्वारा दी जा रही राशि आदि का संचय राज्य के कोषागार में जमा होती रहती है. यही धन राज्य के विकास और इससे जुड़े अन्य कार्यक्रमों में खर्च होता हैं. इसे ही हम प्राचीन काल का बजट कह सकते हैं.


बजट का मुख्य उद्देश्य न्यायोचित और समान ढंग से जनता से कर वसूले जो राज्य के विकास के लिए लाभकारी हो. यही वर्णन महाभारत में भी मिलता है. महाभारत में बजट, कर, अर्थ और वेतन के बारे में विस्तृत चर्चा है.


महाभारत शांति पर्व 92.11 अनुसार, राजधर्म के अनुसार राजा को अर्थ संबंधीत सारे कार्य अपने हाथ में लेना चाहिए.


महाभारत शांति पर्व 120.33–55 क अनुसार, बुद्धिमान राजा समय पड़ने पर ही प्रजा से धन ले (Tax in Financial year end only). अपनी अर्थ-संग्रह की नीति किसी के सम्मुख प्रकट न करे. जो धन राज्य की सुरक्षा करने से बचे, उसी को धर्म और उपभोग के कार्य में खर्च करना चाहिए. शास्त्रज्ञ और मनस्वी राजा को कोषागार के संचित धन के द्रव्य (Reserve) लेकर भी खर्च नहीं करना चाहिए. थोड़ा-सा भी धन मिलता हो तो उसका तिरस्कार न करे. बल्कि बुद्धि से अपने स्वरूप और अवस्था को समझे तथा बुद्धिहीनों पर कभी विश्वास न करे.


राजा को चाहिए कि वह सारी प्रजापर अनुग्रह करते हुए ही उससे कर (धन) वसूल करे. विद्या, तप तथा प्रचुर धन-ये सब उद्योग (Big Industries and Corporates) से प्राप्त हो सकते हैं. अतः उद्योग को ही समस्त कार्यों की सिद्धि का पर्याप्त साधन समझे. राजा लोभी मनुष्य को सदा ही कुछ देकर दबाए रखे, क्योंकि लोभी पुरुष दूसरे के धन से कभी तृप्त नहीं होता.


महाभारत शांति पर्व 80.24 अनुसार-


स ते विद्यात् परं मन्त्रं प्रकृति चार्थधर्मयोः ।


अर्थ- वह तुम्हारे उत्तम-से-उत्तम गोपनीय मन्त्र तथा धर्म और अर्थ की प्रकृति (प्रकृतियों तीन प्रकार की बतायी गयी है- अर्थप्रकृति, धर्म प्रकृति तथा अर्थ-धर्मप्रकृति. इनमें अर्थ-प्रकृति के अन्तर्गत कई वस्तुएं हैं- खेती, वाणिज्य, दुर्ग, सेतु (पुल), जंगल में हाथी बांधने के स्थान, सोने-चांदी आदि धातुओं की खान, कर-ग्रहण और सूने स्थानों को बसाना. इनके अतिरिक्त, जो दुर्गाध्यक्ष, क्लाध्यक्ष, धर्मा–ध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्योतिषी ये सात प्रकृतियों है, इनमें से 'धर्माध्यक्ष' तो धर्मप्रकृति है और शेष छः अर्थ-धर्म. प्रकृति 'के अन्तर्गत है) को भी जाननेक अधिकारी है.


महाभारत वन पर्व 150.43 अनुसार, हनुमान जी भीम को सलाह देते कहते है कि अर्थसंबंधित कार्यों को एक अर्थ शास्त्री (We call it Finance minister in today's world) को ही देखना चाहिए. आदि पर्व 100.38-39 अनुसार, भीष्म पितामह अर्थ शास्त्र में निपुण थे. आदि पर्व 63.112 अनुसार, शकुनी और गांधारी भी अर्थ शास्त्र में निपुण थे.


वेदों में कई मंत्रो में परोक्ष रूप से अर्थ और बजट की चर्चा हैं: –


इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।


विश्वामित्राय ददतो मधानि सहस्त्रसावे प्र तिरन्त आयुः॥ (ऋग्वेद 3.52.7)


अर्थ-हे राजन्! जैसे प्राणवायु शरीर का पालन करती है, उसी प्रकार जो जनता के पालने में तत्पर, युद्ध-विद्या में पूर्ण निपुण, वायु के समान शक्तिशाली असुरों, शत्रुओं के हननकर्ता, असंख्य धनैश्वर्य के उत्पन्नकर्ता, सम्पूर्ण संसार के मित्र हैं, जो अतिश्रेष्ठ धनों को समाज हित के लिए देते हुए मनुष्य के सामान्य स्वभाव (केवल परिवारतक ही अपनत्व रखनेवाला स्वभाव) का उल्लंघन करते हैं, वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा पाने योग्य हैं (इस मंत्र में कहा गया हैं की जनता को समान भाव से कर ले ताकि अमीर लोग गरीबों को दबाए ना).


अद्या चिन्नू चित् तदपो नदीनां यदाभ्यो अरदो गातुमिन्द्र।
नि पर्वता अद्यसदो न सेदुस्त्वया दुळहानि सुक्रतो रजांसि।। (ऋग्वेद 60.30.3)


अर्थ– हे श्रेष्ठ कर्मों को उत्तम प्रकार जानने वाले सूर्य के समान तेजस्वी राजन्! जैसे सूर्य भूमि का आकर्षण करता, आकर्षण द्वारा नदियों से प्राप्त जल को बरसाता है, इसी प्रकार प्रजाद्वारा प्राप्त धन को आप उसी के हितार्थ बरसावें (उपयोग करें), जैसे सूर्य अपनी परिधि के लोकों को धारण करता है, आपके धारण सामर्थ्य में रक्षक, प्रजा तथा राजाजन स्थित होते हैं.


वरेथे अग्निमातपो अन्ति वदते वनवत्रये वामवः ।। (ऋग्वेद 8.73.8)


अर्थ– हे अश्विद्वय राजा और अमात्य! आप दोनों मनोहर सुवचन बोलते मातृपितृभ्रातृविहीन (अनाथ) शिशु- समुदाय को तपाने वाले भूख, प्यास आदि अग्निज्वाला का निवारण कीजिए. आपके राज्य में यह महान् कार्य साधनीय (करणीय) है.


रामायण काल की अयोध्या नगरी या कह लें की समूचा कोशल प्रदेश एक आदर्श राज्य था. जाहिर है कि वहां की व्यवस्थाएं लोक और राज्य के कल्याण के लिए ही बनाई गई होंगी. वाल्मीकि रामायण के बालकांड के अंतर्गत पंचम और छठे सर्ग में दशरथ कालीन अयोध्या नगरी के वैभव का वर्णन मिलता है. अयोध्या में पाए जाने वाले अकूत धन का स्तोत्र कौन सा था उसकी एक झलक देखे :–


सामन्तराज सघेश्च बालिकर्मभीरावृताम।
नान्देशनिवासाशैश्च वनिगभीरूपशोभिताम।।14।।


(वाल्मिकी रामायण बालकाण्ड 5.14)


अर्थ:–कर (Tax) देनेवाले सामंत नरेश  उसे अमीर रखने के लिए सदा वहां रहते थे. विभिन्न देशों के निवासी वैश्य उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे.


दूसरी झलक देखिए:–


तेन सत्याभिसन्धें त्रिवर्ग मनुतिष्ठता।
पालिता ता पुरी श्रेष्ठा इंद्रेनेवामरावती।।5।।


(वाल्मिकी रामायण बालकाण्ड 6.5)


अर्थ:– धर्म अर्थ और काम का सम्पादन करके कर्मो का अनुष्ठान करते हुए वे सत्यप्रतिज्ञ नरेश श्रेष्ठ अयोध्या पुरी का उसी तरह पालन करते जैसे इंद्र अमरावती का. राम जब अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे तब उनके राज्य के हाल की एक झलक देखिए: –


कोशसंग्रहने युक्ता बलस्य च परिग्रहे। अहितम चापि पुरुषम न हिन्स्युरविधुशकम।।11।।


(वाल्मिकी रामायण उत्तर काण्ड 7.11)


अर्थात उस विभाग के लोग कोष के संचय और चतुरंगिणी सेना के संग्रह में सदा लगे रहते थे. शत्रु ने भी यदि अपराध न किया हो तो वे उसके साथ हिंसा नहीं करते थे. तात्पर्य यह कि वहां की अर्थव्यवस्था को ठीक रखने वाले निरपराध भाव से  कार्यरत थे.


अन्तरापाणीवीथियाश्च सर्वेच नट नर्तका:। सुदा नार्यश्च बहवो नित्यं यौवनशालीनः।।22।।


(वाल्मिकी रामायण उत्तर काण्ड)


अर्थ:– रामजी का आदेश था अश्वमेध के आयोजन के समय की मार्ग में आवश्यक वस्तुओं के क्रय-विक्रय के लिए जगह जगह बाज़ार भी लगने चाहिए. इसके प्रवर्तक वणिक और व्यवसाई लोग भी यात्रा करें. साथ ही नट नर्तक, युवा भी यात्रा करें. रामायण काल में राजा कर लेकर भ्रष्टाचार नही करते थे, जो आज कल कई लोग करते हैं: –


वाल्मिकी रामायण अरण्या कांड 6.11 अनुसार: –


सुमहान् नाथ भवेत् तस्य तु भूपतेः । यो हरेद् बलिषद्भागं न च रक्षति पुत्रवत् ।। 11।।


अर्थ:– जो राजा प्रजा से उसकी आयका छठा भाग करके रूप में ले ले और पुत्र को भांति प्रजा की रक्षा न करे, उसे महान अधर्म का भागी होना पड़ता था.


ये सभी एक स्वस्थ और जागरूक अर्थ व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं. आशा करते हैं 23 जुलाई 2024 को आने वाला केंद्रीय बजट भी भारत वासियों के लिए लाभदायक हो.


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