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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

क्यों लोग अपनी बेटी का नाम मंथरा या कैकई नहीं रखते, जानिए वजह

हिंदू धर्म में लोग जन्म के बाद अपनी कन्या का नाम कैकेयीऔर मंथरा नहीं रखते हैं. क्या आप इसका कारण जानते हैं. दरअसल इसकी वजह महारानी कैकेयी और मंथरा के पूर्वजन्म की कथा से जुड़ी है.

आज भी लोग अपनी बेटी का कैकेयी और मंथरा नहीं रखते. सभी हिन्दू जानते हैं की कैकई और मंथरा ने भगवान राम और पूरे सूर्यवंश को कितनी यातनाएं दी थी. लेकिन यह सब विधि द्वारा पहले ही निश्चित था, जब आप कैकेयी और मंथरा के पिछले जन्म को जानेंगे तो आप स्वयं समझ जायेंगे. पहले मंथरा के पिछले जन्म पर दृष्टी डालते हैं.

मंथरा की पूर्वजन्म कथा 

महाभारत वन पर्व 276.9–16 अनुसार, जब पृथ्वी पर भगवान विष्णु, राम अवतार लेने वाले थे उस समय ब्रह्म जी ने सभी देवताओं को प्रथ्वी पर अवतार लेने कहा ताकि सब भगवान राम को सहायता दें. फिर वरदायक देवता ब्रह्माजी ने उन सब के सामने ही दुन्दुभी नाम वाली गन्धर्वी को आज्ञा दी कि “तुम भी देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए भूतल पर जाओ”. पितामह की बात सुनकर गन्धर्वी दुन्दुभी मनुष्यलोक में आकर मंथरा नाम से प्रसिद्ध कुबड़ी दासी हुई. इस प्रकार सारी व्यवस्था करके भगवान ब्रह्मा की आज्ञा से मंथरा बनी हुई दुन्दुभी को जो-जो काम जैसे जैसे करना था, वह सब समझा दिया वह मन के समान वेग से चलने वाली थी.

उसने ब्रह्मा जी की बात को अच्छी तरह समझकर उसके अनुसार ही कार्य किया. वह इधर-उधर घूम-फिर कर वैर की आग प्रज्वलित करने में लग गयी. बाद में आप सभी को पता हैं कि मंथरा ने कैकई के कान कैसे भरे. कई लोग नहीं जानते कि राम अगर पहले ही राजा बन जाते तो जो–जो कार्य राम को वन और लंका में करने निश्चित थे वे नहीं कर पाते. इसलिए लोकपिता ब्राह्म ने गन्धर्वी (मंथरा) को भेजा और उसने अपना काम सफलता से किया. जो भी घटित हुआ उसमे भगवान विष्णु और ब्रह्मा की स्वीकृति आवश्य थी. चालिए अब कैकेयी के पूर्व जन्म पर दृष्टी डालते हैं.

महारानी कैकेयी के पूर्वजन्म की कथा

आनंद रामायण सर्ग कांड 4.117–170 अनुसार, एक बार राजा दशरथ ने प्रसन्नचित मन से मुद्गल मुनि जी से पूछा कि मैं पिछले जन्म में कौन था? और मैंने कौन से पुण्य किए थे कि जिससे साक्षात् भगवान राम रूप में मेरे पुत्र बने तथा साक्षात् लक्ष्मी सीता होकर मेरी पुत्रवधू बनी. यह सुनकर मुद्गल मुनि राजा से फिर कहने लगे. हे राजन् ! करवीरपुर में परम धर्मज्ञ धर्मदत्त नाम से विख्यात एक ब्राह्मण रहता था. वह विष्णु भक्त था और सदा बारह अक्षर के मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) के जप में निष्ठा रखने वाला प्रेमी था. वह हमेशा एकादशी और कार्तिक व्रत करता.

एक बार वह कार्तिक में रात्रि जागरण करके चौथे पहर पूजा की सामग्री लेकर हरि–मन्दिर में जा रहा था कि रास्ते में सहसा उसने एक भयानक घर–घर शब्द करती हुई, अजीब दांतों वाली, जीभ को हिलाती, लाल नेत्रों वाली, जिसके शरीर का सब मांस सूख गया था- ऐसी लम्बे होठों वाली एक राक्षसी (कलहा) को आते देखा. उसको देखकर ब्राह्मण भय से कांप उठा. तब वह समस्त पूजा की सामग्री तथा जल आदि फेंक फेंक कर उसको मरने लगा. वह नारायण का नाम लेता हुआ उसके ऊपर तुलसी पत्र तथा जल फेंकता जाता था. बस, इसी से अनायास उस राक्षसी के सब पाप धुल गए और उसको पूर्वजन्म के कर्मों का स्मरण हो आया. तब वह ब्राह्मण को दंडवत् प्रणाम करके कहने लगी.

कलहा बोली- हे विप्र! मैं पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप इस दशा को प्राप्त हुई हूं. सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नाम का एक ब्राह्मण रहता था. मैं उसकी कलहा नाम की बड़ी निष्ठुर स्त्री थी. मैंने कभी वचन से भी पति की भलाई नहीं की. रसोई में कभी मैं मिष्ठान बनाती तो पति से झूठा बहाना करके तथा उसकी बात टालकर मिठाई नहीं देती थी. भोजन के समय प्रतिदिन जो जो अच्छी चीज बनाती, पहले उसको मैं स्वयं खा लेती थी तब जाकर फिर पति को देती थी. एक दिन मेरे पति ने जाकर अपने एक मित्र से कहा कि मेरी स्त्री मेरी बात नहीं मानती, मैं क्या करूं? उसके मित्र ने यह सुनकर मन में विचार किया. तदनन्तर उसने मेरे पति से कहा- हे मित्र! तुम अपनी स्त्री से उल्टी बात कहा करो, तब वह तुम्हारे मना किए हुए काम को अवश्य करेगी और तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध होगा.

मित्र की बात सुन तथा बहुत अच्छा' कहकर मेरा पति घर पर आया. वह मुझसे कहने लगा है प्रिये! मेरे मित्र को तुम कभी भोजन के लिए न बुलाया करो वह बड़ा दुष्ट है. पति के इस वचन को सुनकर मैंने कहा कि तुम्हारा मित्र ब्राह्मणों में श्रेष्ठ तथा बड़ा सज्जन है. उसको मैं आज ही भोजन के लिए बुलाती हूं. तब मै स्वयं जाकर पति के मित्र को बुला लायी. तबसे मेरा पति विपरीत कथन से ही काम लेने लगा. एक दिन मेरा पति अपने पिता की मरण तिथि आने पर कहने लगा- हे प्रिये मैं आज अपने पिता की श्राद्ध नहीं करूंगा. यह सुनकर मैंने उसके कहने के प्रतिकूल झटपट ब्राह्मणों को निमंत्रण दे दिया और पति से कहा कि तुमको धिक्कार है, जो अपने पिता का श्राद्ध भी नहीं करते. तुम पुत्र के धर्म को नहीं जानते. इसलिए न जाने तुम्हारी क्या गति होगी. तब उसने कहा कि यदि करना ही है तो केवल एक ब्राह्मण को निमंत्रण दे देना, अधिक बखेड़ा नहीं बढ़ाना. पकवान मिठाई आदि में व्यर्थ खर्च नहीं करना.

यह सुनकर मैंने एक साथ अठारह ब्राह्मणों को निमंत्रण दे दिया. श्राद्ध के लिए अनेक प्रकार के पकवान बनाए. फिर पति ने मुझसे कहा कि आज तुम पहले मेरे साथ मिष्ठान भोजन करके बाद मे अपना जूठा भोजन ब्राह्मणों को परोसना. यह सुन- कर मैंने पति को धिक्कारा और कहा कि तुमको धिक्कार है पहले स्वयं खाने के पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए कहते हो? इस प्रकार विपरीत कथन से पति ने मेरे द्वारा विधिवत् श्राद्ध करवाया. पिण्डदान आदि करके फिर उन्होंने मुझसे कहा- मैं आज कुछ भी न खाकर उपवास करूंगा. यह सुनकर मैंने उन्हें खूब मिष्ठान खिलाया. बाद में पति ने मुझ से कहा कि इन पिंडों को ले जाकर प्रेम से किसी पवित्र तीर्थ के जल में फेंक आओ.

यह सुनकर मैंने उन पिंडों को ले जाकर पाखाने में डाल दिया. यह देखा तो वह विप्र हाय-हाय करने लगा. क्षणभर सोचकर पति ने मुझसे कहा कि "देखो पाखाने से पिंडों को बाहर न निकालना". तब शौचकूप में उतरकर मैंने उन, पिंडों को निकाल लिया फिर पति ने कहा- देखो, कहीं इनको किसी तीर्थ में न डालना. तब मैंने ले जाकर उन पिडों का बड़े आदर पूर्वक तीर्थं जल में डाल दिया. इस तरह मैंने कभी भी पति का कहा हुआ काम नहीं किया, तब दुखित होकर उसने अपना दूसरा ब्याह करना निश्रित किया. हे द्विज ! तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिए. तब यमदूत मुझे बांधकर यमराज के पास लेकर गए. यमराज मुझे देखकर चित्रगुप्त से कहने लगे. यमराज ने कहा- चित्रगुप्त! देखो, इसने अच्छा कर्म किया है या बुरा, जिससे इसको वैसा ही फल दिया जाए. कलहा कहने लगी यह सुनकर चित्रगुप्त ने कहा इसने तो कोई अच्छा कर्म कभी नही किया. यह मिष्ठान बनाकर खाती परन्तु अपने पति को नहीं देती थी. इसलिए यह बगुली की योनि में जाकर अपनी हो विष्ठा (मल) खाने वाली पक्षिणी बने. पति से द्वेष करने के कारण यह विष्ठा (मल) भक्षण करने वाली मूकर योनि में पैदा हो.

हे यम इधर-उधार छिपकर भोजन बनाने के पात्र में अकेली ही खाने वाली यह बिल्ली बने. पति के उद्देश्यों को इसने आत्मघात किया है, इस कारण इसे प्रेत योनि मिले और अकेली रहे. कलहा बोली"हे द्विज! तब यमदूतों ने क्षणभर में ही मुझे वहां प्रेतयोनि में डाल दिया. मैं पन्द्रह वर्ष तक प्रेतयोनि में रही. अपने किये हुये कर्मों के अनुसार मैं सदा भूख-प्यास से व्यथित रहने लगी. तदनन्तर हे द्विज भूखों मरती एवं भ्रमण करती हुई मैंने यहां तुमको देखा. यहां तुम्हारे हाथ के जल तथा तुलसी से मेरे सब पाप दूर हो गए.

इस कारण है विप्रे! अब ऐसी कृपा करो कि जिससे सभी तीन योनियों से मेरी मुक्ति हो जाए. हे मुनिश्रेष्ठ! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूं. तुम मेरा इस प्रेतयोनि से भी उद्धार करो. ब्राह्मण ने कलहा के वृत्तान्त को सुना और कहा की मैं अपने कार्तिक व्रत के आधे पुण्य तुम्हे देता हूं जिससे तुमको विष्णु लोक की प्राप्ति होगी". तुलसी से जल छिड़कने के पश्चात वह कलहा एक सुंदर स्त्री में परिवर्तित हो गई. उसी समय विष्णु लोक से वहां एक विमान आ गया कलहा को लेने उसपर पुण्यशील और सुशील दो लोग थे. उन्होंने ब्रह्मण (धर्मदत्त) को आशीर्वाद दिया कि कलहा की तरह तुमको भी विष्णुलोक मिलेगा और उसके पश्चात तुम फिर धरती पर जाओगे जहां साक्षात नारायण तुम्हारे पुत्र बनकर राम अवतार लेंगे, तुम सुरवंश के प्रतापी राजा होगे और कलहा तुम्हारी धर्म पत्नि होगी जिसे लोग कैकई के नाम से जानेंगे. इसी तरह धर्मदत्त आगे चल के राजा दशरथ बने और कलहा कैकेयी बनेगी.

ये भी पढ़ें: Ram Katha: क्या आप जानते हैं, रावण को हराने के बाद रामजी फिर से गए थे अयोध्या और सीता जी ने भी उठाए थे शस्त्र

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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