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महामारी के दौर में झूठी खबरों की क्यों आ जाती है बाढ़ और कैसे किया जा सकता है बचाव
कोरोना वायरस को लेकर इन दिनों हर जगह भ्रामक, झूठी और बेबुनियाद खबरें देखी जा रही हैं.दिलचस्प बात ये है कि अफवाहों पर विश्वास करने वालों में पढ़े लिखे लोग भी शामिल हो जाते हैं.ऐसा क्यों होता है अवैज्ञानिक बातें लोगों के मन में घर कर जाती हैं, क्या इससे बचा जा सकता है ?
महामारी के दौर में झूठी, मनगढ़त और भ्रामक खबरों का फैलना नई बात नहीं है. फिलहाल इन दिनों कोरोना वायरस को लेकर बेबुनियाद खबरें सामने आ रही हैं. सोशल मीडिया पर भी बीमारी के फैलने से लेकर बचाव के तरीके शेयर किए जा रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों होता है और कैसे इस पर काबू पाया जा सकता है ?
संक्रमण से बचाव के तौर पर कुछ अफवाहों और गलतफहमियों के लय में लोग खुद को बहा ले जाते हैं. जिसका नतीजा ये निकलता है कि सरकार के बताए उपाए और स्वास्थ्य संगठनों की बातों पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है. योगो और दि इकोनोमिस्ट के हालिया अध्ययन में पाया गया कि 13 फीसद अमेरिकियों ने कोविड-19 को धोखा माना. 49 फीसद लोगों का कहना था कि कोरोना वायरस बनाया गया है. केली बोरगन नामी लेखिका भी कोरोना वायरस को साजिश माननेवाले लोगों में शामिल हैं. उन्होंने MIT और कोर्नेल यूनिवर्सिटी से मनोचिकित्सा की पढ़ाई की है. बावजूद इसके उनके विचार विज्ञान के बुनियादी सिद्धातों के खिलाफ हैं.
मनोवैज्ञानिकों ने शोध कर कुछ नतीजे लोगों के सामने पेश किए हैं. ऑस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी से जुड़े आयरन न्यूमैन ने अपने शोध में पाया कि किसी बयान के साथ तस्वीर लगी होने पर सच मानना आसान हो जाता है. यहां तक कि सूचना के साथ तस्वीर का सीधा संबंध नहीं जुड़ने पर भी उसे दुरुस्त समझ लिया जाता है. जैसे इन दिनों कोरोना वायरस की कोई तस्वीर किसी नए दावे या सूचना के साथ जोड़ दे तो उससे वायरस की छवि उभरकर आ जाती है. इस तरह हमारा दिमाग सूचना को बड़ी तेजी के साथ स्वीकार कर यकीन में बदल देता है. तस्वीरों के अलावा भाषा का भी योगदान होता है जो इंसान की बुद्धि का रुख मोड़ देती है.
झूठी खबरों को साबित करने के लिए किसी संस्थान के आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया जाता है. इसका नतीजा ये निकलता है कि शुरू में खबर को स्वीकार करने में हिचकिचाहट होने के बावजूद बार-बार झूठ के कारण उस पर विश्वास करने की मजबूरी हो जाती है. एक ही तरह का कोई संदेश बार-बार दोहराए जाने पर अफवाह के बजाए हकीकत मान लिया जाता है. इसके अलावा बहुत हद तक इंटरनेट पर हमारे अपने रवैये की भी भूमिका होती है. मनोवैज्ञानिकों की सलाह है कि सूचना के पोस्ट या शेयर करने से पहले उसकी सच्चाई परख लेनी चाहिए. जैसे क्या ये जानकारी किसी हकीकत पर आधारित है या सुनी सुनाई बात है ? क्या खबर का स्रोत पता है ? सच का साथ देने के लिए पोस्ट को लाइक करने की परवाह मत कीजिए. वरना कोरोना वायरस से जुड़ी जानकारी शेयर करना घातक भी हो सकता है.
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