First Test Tube Baby: आज का दिन विज्ञान की बड़ी उपलब्धि के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज है. 25 जुलाई 1978 में ही दुनिया की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी(First Test Tube Baby) ने मन्म लिया था. यह विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. इंग्लैंड(England) के शहर ओल्डहैम में दुनिया की पहली आईवीएफ(IVF) शिशु लुईस ब्राउन((Louise Brown) का जन्म हुआ था. सरकारी अस्पताल में आधी रात को जन्मी इस बेबी का वजन लगभग ढाई किलोग्राम था. 


आपको बतादें कि इसके बाद बच्चे को जन्म देने वाली आईवीएफ प्रणाली नि संतान दंपतियों के लिए किसी वरदान से कम साबित नहीं हुई. वहीं पहले टेस्ट ट्यूब बेबी के जन्म के बाद लगभग 5000 दंपति ने इस नई प्रणाली के जिरए संतान को प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की. आज यह प्रणाली दुनियाभर में काफी प्रसिद्ध है. आजकल एक दिन में हजारों महिलाएं इस प्रणाली के जरिए गर्भ धारण कर रही हैं.  


पहले ही बता दिया था कि आईवीएफ प्रणाली दुनिया में हो जाएगी कॉमन
आपको बतादें कि नि संतान दंपति को गोद भरने वाला इंसान कोई और नहीं बल्कि 44 साल पहले कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के 52 साल के फिजिशियन रॉबर्ट एडवर्ड्स की देन है. पहली बार टेस्ट ट्यूब बेबी को हाथ में लेकर डॉ एडवर्ड्स ने कहा था कि मैं आशा करता हूं कि कुछ ही सालों में यह सात दिन का अजूबा होने के बजाय एक सामान्य मेडिकल प्रैक्टिस बन जाएगा. आपको बतादें कि डॉ एडवर्डस की बात अब सही साबित होती दिख रही है क्योंकि साल 2018 तक की बात करें तो आईवीएफ तकनीक से लगभग 80 लाख टेस्ट ट्यूब बेबी ने दुनिया में कदम रखा.


नोबेल पुरस्कार नवाजे गए वैज्ञानिक
साल 2010 में डॉ एडवर्डस को इस क्रांतिकारी खोज के लिए मेडिसिन के नोबेल सम्मान से नवाजा जा चुका है.वहीं हपले टेस्ट ट्यूब बेबी लुइस ने साल 2006 में अपने पहले बच्चे को नेचुरल तरीके से गर्भधारण करने के बाद स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया था.  


भारत का पहला टेस्ट ट्यूब बेबी ने लुइस के 67 दिन बाद लिया जन्म
वहीं भारत(India) में पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का सफल परीक्षण 3 अक्टूबर 1978 को कोलकाता(Kolkata) के डॉ सुभाष मुखोपाध्याय ने किया था. इसे दुनिया का दूसरा पहला टेस्ट ट्यूब बेबी का सफल परीक्षण माना जाता है. पर इस परीक्षण को अवैध मान लिया गया था जिसके बाद डॉ सुभाष ने 1981 में आत्महत्या कर ली थी. उनके इस टेस्ट ट्यूब बेबी का नाम दुर्गा कनुप्रिया अग्रवाल है. दुर्गा ने लुईस के 67 दिन के बाद दुनिया में कदम रखा था. वहीं साल 2002 में कई जद्दोजहद के बाद डॉ सुभाष मुखोपाध्याय की इस महान उपब्धि को मान्यता मिल गई थी.


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