420 IPC Review In Hindi Read Here: जी5 पर रिलीज हुई 420 आईपीसी को आप टाइम पास फिल्म भी नहीं कह सकते. इस फिल्म के राइटर-डायरेक्टर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे पता नहीं, कहानी को किस दिशा में बढ़ाना है और कहानी का हीरो किसे बनाना है. कभी यह कहानी मिडिल क्लास सीए बंसी केसवानी (विनय पाठक) को आगे बढ़ाती है तो कभी कोर्ट में उसकी वकालत कर रहे बीरबल चौधरी (रोहन विनोद मेहरा) को अपना चेहरा बनाती है, जो जूनियर होने के बावजूद कहीं सीनियर वकील सावक जमशेदजी (रणवीर शौरी) को चुनौती पेश कर रहा है. कहानी के टारगेट को लेकर भी यहां कनफ्यूजन है। यह कभी बंसी केसवानी को बिल्डर नीरज सिन्हा (आरिफ जकारिया) के बैंक चेक चोरी कर झूठे हस्ताक्षर से धन निकालने के आरोप में कठघरे में खड़ा दिखाती है तो कभी बताती है कि केसवानी बहुत चालाक है और उसने एक बड़े भ्रष्ट सरकारी अधिकारी का करोड़ों रुपया काले से सफेद कर दिया है. पूरी फिल्म में यह कहीं साफ नहीं होता कि आखिर मनीष गुप्ता क्या कहना चाहते हैं. फिल्म बिन पेंदे के लोटे जैसी, कभी इधर तो कभी उधर लुढ़कती है.


आरुषि हत्याकांड पर रहस्य (2015) और पुरुषों पर लगने वाले झूठे रेप केस की समस्या पर आधारित सेक्शन 375 (2019) जैसी यादगार फिल्में बना चुके राइटर-डायरेक्टर मनीष गुप्ता से आप ठोस फिल्म की उम्मीद करते हैं. लेकिन 420 आईपीसी खोखली फिल्म है। यहां मनीष बुरी तरह निराश करते हैं. पूरी फिल्म बिखरी हुई है. न तो इसकी कहानी में कसावट है और न ही किसी तरह का रोमांच. यह शुरू होती है एक भ्रष्टाचार की खबर के साथ, जिसमें पुलिस केसवानी के घर छापा मारती है. केसवानी पर आरोप है कि वह अपने एक भ्रष्टाचारी सरकारी क्लाइंट की करोड़ों रुपये की हेरा-फेरी में मदद कर रहा है. फिर अचानक कहानी का रूट डाइवर्ट होता है. बिल्डर नीरज सिन्हा, केसवानी पर अपने ऑफिस से चेक चोरी करके करोड़ों रुपये बैंक से निकालने की कोशिश का आरोप लगा कर उसे जेल भिजवा देता है. अब कहानी कोर्ट में पहुंच जाती है. यहां पर जूनियर वकील बीरबल चौधरी केसवानी को बचाने के लिए तमाम तिकड़में लगाता है कि उसे जमानत मिल जाए.




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हम अक्सर देखते हैं कि कोर्ट रूम की फिल्में न्याय तक पहुंचती हैं. परंतु यह फिल्म केसवानी को जमानत मिलने के साथ खत्म हो जाती है. इसके बाद निर्देशक अंत में कैप्शन लिख कर बताता है कि भ्रष्टाचार के मामले में क्या हुआ, केसवानी ने आगे कौन से कदम उठाए. मनीष गुप्ता ने किसी नौसिखिए की तरह यह कहानी कही है. जी5 का यह कंटेंट न तो दर्शक का मनोरंजन करता है और न ही विषय को पैनेपन के साथ उठाता है. सिर्फ नामी चेहरों को देख कर आप इसे ऑन करेंगे तो ऊंची दुकान फीके पकवान जैसा अनुभव पाएंगे. कोर्ट रूम ड्रामा वाले सवाल-जवाब, बहसें, तनाव, खींचतान, तर्क-वितर्क-कुतर्क और डायलॉगबाजी पूरी तरह से गायब है. ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर भी बॉलीवुड की भेड़चाल वाली समस्याएं अब नजर आने लगी हैं. अगर किसी ओटीटी पर कोई कंटेंट बहुत देखा जाता है तो दूसरे प्लेटफॉर्म भी वैसा ही कुछ बनाना चाहते हैं. इधर, कुछ अदालती ड्रामे हिट रहे हैं और खुद जी5 पर पिछले दिनों आई फिल्म 200 हल्ला हो सराही गई थी. जिसमें कोर्ट रूम का अहम रोल था. लेकिन एक कंटेंट के चलने का मतलब नहीं है कि दर्शक सिर्फ वही देखना चाहते हैं.




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फिल्मों में विनय पाठक और रणवीर शौरी अक्सर जोड़ियों की तरह आते हैं, लेकिन यहां ऐसा नहीं है. सीए के रोल में विनय पाठक दब्बू टाइप दिखे हैं और इस बात का कहानी से कोई संबंध नहीं दिखता. इसी तरह रणवीर ने पारसी वकील के रूप में बोलने का अंदाज बदला है और शुरू से अंत तक वह एक टोन पकड़े रहते हैं. जो आकर्षक जरूर है मगर उसका भी कोई अर्थ कहानी में नहीं है. गुल पनाग के किरदार में जान नहीं है और यही बात आरिफ जकारिया के रोल पर लागू होती है. सभी कलाकार यहां निराश करते हैं. फिल्म समय बेकार करती है. ऐसा लगता है कि इसे एक प्रोजेक्ट के रूप में स्वीकार करके बहुत जल्दबाजी में लिखा और बना दिया गया.


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