Yami Gautam A Thursday Review : यह उस थर्सडे यानी गुरुवार की कहानी है, जिसका इंतजार है. उस दिन की कहानी नहीं, जिस दिन यह घटना हुई. डिज्नी हॉटस्टार पर आई फिल्म 'अ थर्सडे' ऐसी क्राइम थ्रिलर है, जिसकी शुरुआत अच्छी है और भावनात्मक उतार-चढ़ाव के साथ यह बांधे रहती है. लेकिन आखिरी के आधे घंटे से पहले कहानी का वह तार खुल जाता है, जिसके बाद फिल्म बेमतलब हो जाती है. एक बहस में शामिल रहने के लिए चाहें तो आप इसे आगे देख सकते हैं मगर फिल्म के रूप में 'अ थर्सडे' खुलकर बिखर जाती है. इसकी पूरी जिम्मेदारी पटकथा पर है और लेखक-निर्देशक बेजाद खंबाटा यहां चूक जाते हैं, क्योंकि दर्शक के लिए आगे जानने को कुछ खास बचता नहीं है. बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्में ऐसी ही कमजोरियों का शिकार होती हैं और इसमें कोई नई बात नहीं है.


'अ थर्सडे' शुरू होती है, नन्हें बच्चों के प्ले स्कूल से जहां उनकी टीजर नैना जायसवाल (यामी गौतम धर) तीन हफ्ते की छुट्टी से लौटी है और आते ही उसने पूरे स्टाफ को बाहर भेज दिया. ढाई कमरों के स्कूल में बचे अब नैना और 16 नन्हे-मुन्ने. तब नैना पुलिस स्टेशन में फोन करके कहती है कि मैंने 16 बच्चों को बंधक बना लिया है और मेरी कुछ मांगें हैं. इसके बाद शुरू होता है पुलिस और नैना का ड्रामा. पुलिस बिल्डिंग को घेर लेती है और सवाल उठते हैं कि क्यों नैना ने बच्चों को बंधक बनाया और आगे क्या हैं उसके प्लान. पहले वह पुलिस से अपने अकाउंट में पांच करोड़ ट्रांसफर कराती है. फिर कहती है कि वह पीएम माया राजगुरु (डिंपल कपाड़िया) से फोन पर बात करना और इसके बाद आमने-सामने टेबल पर बैठ कर बात करना चाहती है. सब वैसा-वैसा होता जाता है, जैसा-जैसा नैना चाहती है.


इस कहानी में बड़े विरोधाभास हैं. एक तरफ फिल्म बताती है कि सिस्टम कैसे कछुआ गति से काम करता है कि जिसके साथ अन्याय होता है, वह बरसों-बरस उससे भुगतता है. न्याय पाने के लिए दर-दर भटकता है. दूसरी तरफ यहां मिनटों में करोड़ों रुपये नैना के खाते में ट्रांसफर हो जाते हैं और पीएम आनन-फानन में उससे मिलने पहुंच जाती हैं. नैना मोबाइल पर पीएम के साथ अपनी बातचीत लाइव करती है और पूरा देश ऐसे देखता है, जैसे चाय पर चर्चा है. उधर, पीएम के साथ स्कूल के अंदर गया पुलिस इंस्पेक्टर जावेद खान (अतुल कुलकर्णी) खड़ा-खड़ा सब देखता रहता है. वह जरा भी जहमत नहीं उठाता कि नैना पर काबू पा ले. शुरुआती आधे घंटे बाद ऐसा लगता है कि लेखक-निर्देशक ने तमाम तर्कों को दरकिनार कर दिया. कहानी के स्तर पर अ थर्सडे क्रमशः बेसिर-पैर की होती जाती है. अंत में आपको यह बताती है जितनी देर आपने यह फिल्म देखी, उतनी देर में देश में बलात्कार के आठ हादसे हो चुके हैं. अ थर्सडे अपनी कहानी में मीडिया और सोशल मीडिया पर भी टिप्पणियां करती है कि यहां गंभीरता नाम की चीज खत्म हो चुकी है. मुद्दों पर जनता की राय भी असल में मीडिया के मनोरंजन का हिस्सा है. उसमें कोई दम नहीं है.

हाल की बॉलीवुड फिल्में देखते हुए लगता है कि एंग्जाइटी और डिप्रेशन इस इंडस्ट्री में महामारी की तरह पसरे हुए हैं. हर दूसरा किरदार इन कहानियों में मुट्ठी भर-भर कर एंटी-डिप्रेसेंट गोलियां खाते नजर आता है. अ थर्सडे में भी नैना ये गोलियां खा रही हैं. बॉलीवुड को समझना होगा कि एंटी-डिप्रेसेंट गोलियों और नशे की दुनिया के बाहर भी थ्रिल रचा जा सकता है. अ थर्सडे तभी तक अपने थ्रिल में बांधे रखती है, जब तक पता नहीं चलता कि नैना ने नन्हे-मुन्ने बच्चों को क्यों बंधक बना रखा है. लेकिन जैसे ही इस सवाल का जवाब मिलता है, फिल्म तमाम रोमांच खो देती है. अगर आप भी इसे लेखक-निर्देशक की तरह तर्क और दिमाग एक तरफ रख कर देखना चाहें तो देख सकते हैं. अन्यथा इसमें कुछ नया नहीं.


नैना के साथ यहां अतुल कुलकर्णी और नेहा धूपिया की एक बैक स्टोरी बताई गई है, जो गैर जरूरी मालूम पड़ती है और तर्क की कसौटी पर भी कई सवाल छोड़ जाती है. यामी गौतम और अतुल कुलकर्णी के परफॉरमेंस जरूर बढ़िया हैं मगर सिर्फ यही अ थर्सडे देखने की वजह नहीं हो सकते. नेहा धूपिया और डिंपल कपाड़िया औसत हैं. जिस मुद्दे को यह फिल्म उठाती है, उस पर पहले भी कई फिल्में बनी हैं और देश की सड़कों पर कैंडल मार्च से लेकर संसद तक हल्ला होता रहा है. इस संवेदनशील विषय के कई पहलू है. जिन पर लंबी बहस जारी है. अ थर्सडे बगैर किसी गंभीर विमर्श के एक पॉपुलर फैसला सुनाती है.



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