83 Review: पल-पल गुजरते वक्त की नदी में कुछ लम्हे फ्रीज हो जाते हैं. उन लम्हों में कुछ खास होता है, जो वक्त बीतने के बावजूद कभी धुंधला नहीं पड़ता. वे लम्हे इंसानी यादों में, समाज और देश के इतिहास में अमर हो जाते हैं. 38 साल पहले 1983 के विश्व कप क्रिकेट में भारत को मिली जीत, ऐसा ही सुनहरा पल है. उस दौर में क्रिकेट आज की तरह तेज रफ्तार नहीं था. तब उसमें न ग्लैमर था और न अथाह पैसा. तब क्रिकेट करिअर नहीं था, खिलाड़ी की जिंदगी का रिस्क था. लेकिन भारत की खिताबी जीत ने सब कुछ बदल दिया.


क्रिकेट धर्म हो गया और कामयाब क्रिकेटर भगवान. 1983 में भारत विश्व कप के दावेदारों में कहीं नहीं था. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह टीम इतिहास रचेगी. देश-दुनिया का मीडिया भारत की जीत की कल्पना की तक हंसी उड़ाता था.


निर्देशक कबीर खान की फिल्म 1983 के उन्हीं जून के दिनों को पर्दे पर लेकर आई है. युवा कप्तान कपिल देव को नहीं पता था कि टीम को जीतने के लिए कैसे प्रेरित करें क्योंकि पूरी टीम ग्रुप मैच खत्म होने की तारीख के बाद ही वापसी के टिकट लेकर इंडिया से चली थी. टीम के कुछ सदस्य अमेरिका में शॉपिंग करना चाहते थे और अमेरिका जाने से पहले उनका इरादा इंग्लैंड में होने वाले इस टूर्नामेंट में चुनिंदा मैच खेलने भर का था. सबको पता था कि विश्व कप उनके लिए औपचारिकता है. दो बार की चैंपियन वेस्टइंडीज और ऑस्ट्रेलिया की मजबूत टीम उनके ग्रुप में थी.




अतः वे सेमीफाइनल से पहले बाहर होना सुनिश्चित मान रहे थे. दूसरी तरफ मेजबान इंग्लैंड की कड़क दावेदारी भी कप पर थी. लेकिन कैसे वक्त का पहिया घूमा और कैसे कपिल देव की टीम चैंपियन बनी, 83 में यह नाटकीय घटनाक्रम भावनाओं के उतार-चढ़ाव के साथ दिखाया गया है.


83 एक किस्म से उस टूर्नामेंट में भारत की विजय का भावुक-सिनेमाई डॉक्युमेंटेशन है. जिसमें खिलाड़ियों और ड्रेसिंग रूम की निजी बातें से रंग भरे गए हैं. जैसे फास्ट बॉलर बलविंदर सिंह संधू की सगाई का टूर्नामेंट के बीच में टूटना क्योंकि लड़की वालों को लगता था कि इंडिया के लिए खेल रहे इस खिलाड़ी के पास इतने पैसे नहीं कि वह पत्नी को ठीक से रख पाएगा. टीम के सेमीफाइनल में पहुंचने पर जब बीसीसीआई ने कहा कि वह हर खिलाड़ी को 25-25 हजार रुपये देगा, तो किसी को विश्वास नहीं हुआ क्योंकि तब किसी ने इतने पैसे एक साथ नहीं देखे थे.




इसी तरह के. श्रीकांत, यशपाल शर्मा, मोहिंदर अमरनाथ और मैनेजर पीआर मानसिंह (पंकज त्रिपाठी) के किस्सों से यह कहानी सजी है. लेकिन फिल्म हर खिलाड़ी से न्याय करती है, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि सुनील गावस्कर का उस दौर में क्या कद था, इस फिल्म से आप कतई नहीं समझ सकते. दिलीप वेंगसरकर, सैयद किरमानी, रोजर बिन्नी, रवि शास्त्री और कीर्ति आजाद इसमें लगभग खो गए हैं.




83 का वास्तविक पूरा फोकस कपिल देव पर है. निश्चित ही यह कपिल की बायोग्राफी नहीं है लेकिन यहां सब कुछ उन्हीं के चारों ओर घूमता है. बतौर कप्तान वह चीजों को किन मुश्किलों से मैनेज कर रहे थे, यह यहां दिखता है. जिम्बाब्वे के विरुद्ध उनकी 175 नॉट आउट की ऐतिहासिक पारी को फिल्म में खूबसूरती से रचा गया है. विश्व क्रिकेट की महानतम पारियों में शीर्ष पर आने वाली इस पारी का कोई वीडियो रिकॉर्ड नहीं है क्योंकि बीबीसी के कैमरे उस दिन ऑस्ट्रेलिया-वेस्ट इंडीज के कथित महत्वपूर्ण मैच को कवर कर रहे थे.




कबीर खान ने फिल्म का टोन हल्का बनाए रखा और टीम के माहौल को बेहद दोस्ताना बताया. कपिल के बाद उनका दूसरा फोकस यहां विश्व कप के वे मैच हैं, जिनमें भारत ने उलटफेर किए या बड़ी जीत हासिल की. लेकिन गैर-जरूरी चीजों से कबीर का मोह यहां नहीं छूटा. भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी और हिंदू-मुस्लिम दंगे भी क्रिकेट की इस कहानी में उन्होंने डाले.


इमरान खान को क्यों एक सीन में दिखाया गया, वह समझ नहीं पड़ता. ऐसी कुछ बातें हैं जो भारत की जीत की इस शो-रील में खटकती हैं. रणवीर सिंह को कपिल देव के रूप में दिखाने के लिए जितनी मेहनत की गई, उतनी जीत के अन्य नायकों मदन लाल, यशपाल शर्मा और मोहिंदर अमरनाथ पर नहीं की गई.




टीम के खिलाड़ियों के रूप में जिन कलाकारों को चुना गया, वे तारीफ के काबिल हैं क्योंकि लगभग सभी ने मूल खिलाड़ियों की बॉडी लैंग्वेज और गेंद-बल्ला चलाने के अंदाज को लगभग सफलतापूर्वक कॉपी किया. रणवीर फिल्म की जान हैं और उन्होंने कपिल देव बनने के लिए खूब पसीना बहाया. 83 भव्य ढंग से फिल्माई और कसावट से संपादित की गई है. यह 83 में भारत की यादगार जीत को बड़े पर्दे पर उतारने में सफल रही है. चूंकि आप इतिहास जानते हैं और तमाम उतार-चढ़ाव आपको पता है, इसलिए विकेट गिरने या हार सामने दिखने पर तनाव पैदा नहीं होता. फिल्म देखते हुए यह अहसास होता है कि आप खुशनुमा मेले में सैर करने आए हैं. अगर आप क्रिकेट और कपिल देव के फैन हैं, अगर आप 83 की उस महान जीत के लम्हों को फिर से जीना चाहते हैं तो यह फिल्म मिस न करें.