आम धारणा यही है कि नेताओं का पढ़ाई-लिखाई से क्या काम. राजनीति के गणित बैठाने के लिए किताबी गणित जानना जरूरी नहीं. नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई निर्देशक तुषार जलोटा की पहली फिल्म इसी सिरे को उठा कर बढ़ती है और अंत में पढ़ने-लिखने से ही जनकल्याण का बात करती है. यह एक काल्पनिक हरित प्रदेश की कहानी कहती है, जो अपनी भाषा, चाल-ढाल, अंदाज और लोगों के पहनावे में हरियाणा की नकल लगता है. यहां के मुख्यमंत्री गंगाराम चौधरी (अभिषेक बच्चन) पर शिक्षक भर्ती घोटाले के आरोप लगते हैं और अदालत उसे जेल भेज देती है. आठवीं पास चौधरी का कहना है कि मॉल बनेंगे तो ‘माल’ बनेगा और स्कूल बने तो बेरोजगार ही पैदा होंगे. चौधरी जेल जाने से पहले पत्नी बिमला देवी (निमरत कौर) को अपनी जगह कुर्सी पर बैठा जाता है. जेल में चौधरी का सामना सख्त सुपरिंटेंडेंट ज्योति देसवाले (यामी गौतम धर) से होता है. ज्योति उसे जाहिल-गंवार कहती है और तब चौधरी ठान लेता है कि अब दसवीं पास करके ही मानूंगा. यदि दसवीं पास न कर सका तो कभी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा.
इस छोटे से दायरे में दसवीं की पूरी कहानी घूमती है और तरह-तरह के ड्रामे रचती है. इस कहानी का अंत क्या होगा, यह कहने की जरूरत नहीं. लेखकों की लंबी टीम और निर्देशक ने कहानी को कॉमिक टच दिया है. इसका मतलब यही है कि पूरे मामले को आप गंभीरता से न लें। यही बात कहानी की असली समस्या है. चौधरी की दसवीं की तैयारी फिल्म में सचमुच का हव्वा बन जाती है और उसमें काफी वक्त गुजर जाता है. तैयारी करते हुए चौधरी इतिहास पढ़ते-पढ़ते ‘मुन्नाभाई’ हो जाता है और उसे लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी और चंद्रशेखर आजाद से लेकर सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानी दिखने लगते हैं. वह उनसे बातचीत करने लगता है। गणित, भौतिकी, अंग्रेजी और हिंदी पढ़ाने वाले भी उसे जेल में मिल जाते हैं. इस फिल्म की जेल और यहां का माहौल अक्सर किसी मॉर्निंग वॉक वाले बगीचे जैसा नजर आता है.
दसवीं का एकमात्र रोचक ट्विस्ट यह है कि चौधरी की रोटी पकाने और तबेला संभालने वाली बीवी मुख्यमंत्री बनकर इतनी स्मार्ट हो जाती है कि कहती है, ‘सरकार चलाने के बाद गाय-भैंस नहीं चराऊंगी’. नतीजा फिल्म के राजनीतिक ड्रामे के रूप में आता है। यही सबसे कमजोर और अतार्किक हिस्सा है. यहां फिल्म औंधे मुंह गिर जाती है. न तो उतार-चढ़ाव-तनाव आते हैं और न कोई ऐक्शन होता है. जेल से रिहाई के बाद चौधरी और बिमला का टकराव हवा निकले गुब्बारे जैसा है. जब पति-पत्नी चुनाव में आमने-सामने होते हैं, तब भी कोई डायलॉगबाजी नहीं है. सिर्फ चौधरी को शिक्षा के महत्व पर जगह-जगह भाषण देते दिखाया गया है.
दसवीं की शुरुआत बहुत धीमी है. आधे घंटे से अधिक गुजरने पर भी फिल्म पकड़ नहीं बना पाती. इस दौरान हंसाने की कोशिश करते हुए अभिषेक खुद हास्यास्पद बने रहते हैं क्योंकि वह किरदार में फिट नहीं दिखते. ऐसा लगता है कि वह जबर्दस्ती खुद को एडजस्ट करने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी हरियाणवी टोन और बॉडी लैंग्वेज मेल नहीं खाती. करीब घंटा भर बाद जब कहानी में यामी और निमरत मोर्चे संभालती हैं तो अभिषेक पर कहानी का बोझ कुछ कम होता है और फिल्म में थोड़ी रवानी आती है. मगर यह ज्यादा देर बनी नहीं रह पाती. चौधरी की दसवीं की परीक्षा की तैयारी और उसके बाद पॉलिटिकल ड्रामा फीके साबित होते हैं. अंत में फिल्म सबके शिक्षित होने की जरूरत पर जोर देते हुए, उसके मुफ्त होने के राजनीतिक चुनावी एजेंडे पर आ जाती है.
दसवीं औसत फिल्म है और इसका दसवीं बोर्ड परीक्षा की तैयारी में लगे विद्यार्थियों से कोई संबंध नहीं है. असल में यह राजनेताओं के लिए शिक्षाप्रद फिल्म है, जिससे वे कभी कुछ सीखेंगे नहीं। इसमें जनता के लिए भी कोई मैसेज नहीं है. फिल्म जनता से यह तक कहने की हिम्मत नहीं करती कि कम पढ़े या अनपढ़ नेताओं को अपना प्रतिनिधि न चुनें. अभिषेक जरूर खुद को जमाने के लिए मेहनत करते हैं लेकिन मेहनत रंग नहीं लाती. यहां अगर किसी का रंग जमता है, तो वह हैं निमरत कौर. लेकिन उनका किरदार मजेदार होने के बावजूद लेखक-निर्देशक उसमें धार नहीं पैदा कर पाए. जबकि यामी गौतम धर सुंदर दिखी हैं और उन्होंने अभिनय भी अच्छा किया है. तुषार जलोटा के निर्देशन में कसावट नहीं है. तषार भजन सम्राट अनूप जलोटा के भतीजे हैं. फिल्म को लिखने में मेहनत नजर नहीं आती और नए आइडिये नहीं दिखते. कहानी राम बाजपेयी ने लिखी है, जबकि पटकथा रितेश शाह, सुरेश नायर और संदीप लेजिल की है. चर्चित कवि डॉ.कुमार विश्वास को यहां स्क्रिप्ट तथा संवाद कंसलटेंट का क्रेडिट दिया गया है. गीत-संगीत ठीक है और एक बार सुना जा सकता है.
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