All We Imagine As Light Review: एक फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में Grand Prix अवॉर्ड मिलता है लेकिन अपने यहां उस फिल्म को आसानी से ना थिएटर नसीब होता है और ना ही कोई ओटीटी प्लेटफॉर्म. शायद इसे सिनेमा की त्रासदी ही कहा जाएगा कि अच्छी फिल्मों के नसीब में आजकल फेस्टिवल और तारीफें ही रह गई हैं. लेकिन राणा दग्गुबाती ने केरल के बाद इस फिल्म को पूरे इंडिया में रिलीज करने का फैसला लिया और इसके लिए उनकी तारीफ करनी होगी क्योंकि सिनेमा अगर कुछ कहता है तो उसे सुनना चाहिए और पायल कापड़िया की ये फिल्म भी कुछ कहती है. 


कहानी


ये कहानी है प्रभा, अनु और पार्वती क. ,प्रभा अस्पताल में हेड नर्स है और बाहर से मुंबई आई है. अनु भी बाहर से आई है और प्रभा की टीम में काम करती है. पार्वती भी इसी अस्पताल में काम करती है, प्रभा की शादी उसे माता-पिता ने करवा दी थी और शादी के बाद उसका पति जर्मनी चला गया. एक साल से उसके पति का फोन तक नहीं आय़ा, हां एक प्रेशर कुकर जरूर आया. अनु को एक मुस्लिम डॉक्टर से प्यार हो जाता है और उसके माता-पिता अपनी मर्जी से उसकी शादी कराना चाहते हैं. दोनों के धर्म अलग हैं इसलिए दोनों खुलकर मिल नहीं पाते. पार्वती को बिल्डर उसका घर खाली करने की धमकी दे रहे हैं और वो अपना घर छोड़कर नहीं जाना चाहिए. मुंबई में इन तीनों की अलग अलग दिक्कतें हैं लेकिन फिर ये तीनों एक फैसला लेती हैं, क्या होता है वो फैसला जिससे इनकी जिंदगी में खुशी आती है. वो जानने के लिए आपको थिएटर तक जाना चाहिए.


कैसी है फिल्म


ये फिल्म शुरू होती है मुंबई की भागदौड़ से, वो सब जो आप हजारों बार देख चुके हैं लेकिन फिर ये फिल्म कुछ ऐसा दिखाती है जो मुंबई की भागदौड़ में हम देख नहीं पाते. अकेलापन, घुटन, ये फिल्म स्लो है लेकिन धीरे धीरे ही सही ये आपको अपनी गिरफ्त में लेती है. आप कहानी से रिलेट करते हैं, फिल्म के काफी सारे डायलॉग मलयालम में हैं तो अगर आपको मलयालम समझ नहीं आती तो सब टाइटल्स से नजर मत हटाइएगा वर्ना फिल्म का प्लॉट मिस कर देंगे. अगर आप भी अपना घर अपना शहर छोड़कर किसी दूसरे शहर में आकर काम कर रहे हैं तो आप इस फिल्म को महसूस कर पाएंगे, और अगर नहीं भी आए तो ये महसूस कर पाएंगे कि बाहर से आने वाले क्या महसूस करते हैं. ये फिल्म बताती है कि मुंबई सबको अपनाती तो है लेकिन शायद जादू की झप्पी नहीं दे पाती. ये फिल्म एक ऐसा सिनेमा है जो कुछ कहता है औऱ जब शोर के बीच कोई फिल्म कुछ कहे तो सुनना चाहिए क्योंकि बहुत कम फिल्में ऐसी होती हैं जो कुछ कह पाती हैं.


एक्टिंग


प्रभा के किरदार में kani kusruti ने डान डाल दी है, वो उस दर्द को उस अकेलेपन को बहुत अच्छे से पर्दे पर पेश करती हैं जो प्रभा की जिंदगी में है. अनु के किरदार में दिव्या प्रभा का काम काफी अच्छा है, एक लड़की जिसे इश्क हो जाता है, वो कैसे उसे छिपाने की कोशिश करती है. उसकी क्या कशमकश है, दिव्या के हावभाव बहुत अच्छे से ये कह देते हैं. छाया कदम ने कमाल का काम किया है, वो इस फिल्म की काफी अहम कड़ी हैं और इस किरदार के साथ वो पूरा इंसाफ करती हैं. अनु के बॉयफ्रेंड के किरदार में hridhu haroon का काम अच्छा है.


डायरेक्शन और राइटिंग


इस फिल्म को पायल कपाड़िया ने लिखा और डायरेक्ट किया है. और पायल की राइटिंग और डायरेक्शन दोनों काबिले तारीफ हैं. वो आपको ये कहानी महसूस करा देती हैं. आपको इन तीनों औरतों के दर्द का अहसास करा देती हैं. ये फिल्म स्लो जरूर है लेकिन यही इस फिल्म की तासीर है, ये तेज होती तो ये भी मुंबई की भागदौड़ में इनके अकेलेपन और इनकी कहानी को गुम कर देती.


कुल मिलाकर जिस फिल्म को विदेश में सम्मान मिला उसे हम देश में देखकर तो इज्जत दे ही सकते हैं तो जरूर देखिए.