Badhai Do Movie Review: राजकुमार और भूमि का अभिनय फिल्म को देखने के काबिल बनाता है. गे-लेस्बिनय रिश्तों पर पहले आई फिल्मों के मुकाबले बधाई दो संवेदनशील है, लेकिन निर्देशक ने इसे एजेंडे में सेट करके नुकसान पहुंचाया है.


आप बदलें न बदलें, इंडिया बदल रहा है. लोग बदल रहे हैं. उनके आचार-विचार-व्यवहार बदल रहे हैं. आजादी मौलिक अधिकार है और उसे कोई किसी से छीन नहीं सकता. मोमबत्तियां लिए जुलूस, हाथों में हाथ लिए मार्च और तख्तियों पर लिखी बिंदास बातों में नए जमाने की आवाजें मुखर हो रही हैं. बधाई दो कुछ ऐसे ही बदलाव को रेखांकित करता सिनेमा है. आप इससे सहमत हों, चाहे न हों. यह समलैंगिकों की कहानी है. 



हालांकि समलैंगिक नायक-नायिकाओं की फिल्में पहले भी बनी हैं लेकिन बधाई दो पारिवारिक दायरों में हस्तक्षेप करती है और वहां तक बदलाव की बहस को लेकर जाती है. इस तरह यह ऐसी पिछली फिल्मों के मुकाबले अधिक संवेदनशील और लोगों के ज्यादा करीब है. लेखकों और निर्देशक ने यहां समलैंगिकों को समाज से कटकर, उससे दूर छुप जाने वाले लोगों की तरह नहीं दिखाया, बल्कि फिल्म के किरदार समाज और परिवार के बीच हैं. वे अपनी जगह तलाश रहे हैं. वे आंखें मिला कर बात कर रहे हैं.


यह अलग बात है कि निर्देशक ने कहानी के मानवीय पक्षों को उभारते हुए एक सीमा के बाद, खास तौर पर अंतिम क्षणों में इसे एजेंडे में बदल दिया और वहीं फिल्म अपनी धार और काफी हद तक सहानुभूति खो देती है. इससे पहले वह अपनी बात पूरी कर लेती है.



बधाई दो का अंदाज कॉमिक है और बीच-बीच में यह रोमांस के गुल खिलाने की कोशिश करती है. कहानी शार्दुल ठाकुर (राजकुमार राव) और सुमन सिंह (भूमि पेडनेकर) की है. शार्दुल पुलिसवाला है और सुमन एक स्कूल पीटी टीचर. दोनों थर्टी प्लस हैं और परिवार की तरफ से उन पर शादी करके घर बसाने का दबाव है. समस्या यह कि शार्दुल गे और सुमन लेस्बियन है. एक मुलाकात के बाद दोनों तय करते हैं कि क्यों न एक-दूसरे के साथ सात फेरे ले लें और फिर अपने-अपने तन-मन की प्राथमिकता के हिसाब से जीवन जिएं. पश्चिम में इसे लैवेंडर मैरिज कहते हैं, लेकिन देसी अंदाज में इसे कहेंगे कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी. फिल्म में सांप और लाठी का संघर्ष चलता रहता है.


शादी के बाद शार्दुल और सुमन अपनी योजनानुसार जीवन तो शुरू करते हैं लेकिन यह आसान नहीं है. आस-पड़ोस, समाज और परिवार उनकी हरकतों पर नजर रखते हैं. साल बीतते-बीतते परिजनों-रिश्तेदारों का दबाव पड़ने लगता है कि आखिर वे गुड न्यूज कब सुनाएंगे यानी उन्हें बच्चा कब होगा. फिल्म का यह पूरा हिस्सा रोचक है और कॉमिक भी. दर्शक इसे देखते हुए लगातार बंधा रहता है और सोचता है कि आगे क्या होगा. 



लेकिन फिल्म का एक और पक्ष है. जिसमें शार्दुल और सुमन की निजी जिंदगी है, जिसमें वे अलग-अलग किरदारों के साथ गे और लेस्बियन रिलेशनशिप में हैं. यहां फिल्म बोर, धीमी और जीरो-एक्शन वाली है. खास तौर पर शार्दुल का ट्रैक, जिसमें पता ही नहीं चलता कि उसका पार्टनर कबीर क्यों उससे अलग हो गया और कैसे एक नए पार्टनर ने शार्दुल को देखते ही उसकी हकीकत जान ली. कैसे वे देखते-देखते जीवन में आगे बढ़ गए. सुमन और रिमझिम (चम दरांग) के बीच घटनाएं नजर आती हैं लेकिन रोमांस फीका है.


इस फिल्म की सबसे बड़ी समस्या लंबाई है. 147 मिनट की फिल्म में आधा घंटा अतिरिक्त मालूम पड़ता है और यहीं निर्देशक हर्षवर्धन कुलकर्णी फिल्म की कहानी को एजेंडे में बदलते नजर आते हैं. यही एजेंडा दर्शक को फिल्म से दूर ले जाता है. बधाई दो अगर देखने योग्य बनती है तो राजकुमार और भूमि की वजह से. दोनों का अभिनय बहुत बढ़िया है. वो अपने किरदारों में उतर गए हैं. समाज के हाशिये पर रहते हुए मुख्यधारा के हिसाब से दिखते रहने का संघर्ष उनके चेहरों पर पढ़ा जा सकता है. राजकुमार की कॉमिक टाइमिंग भी अच्छी है और वह गे-लेस्बियन विमर्श समेत पूरी फिल्म को बोझिल होने से बचाते हैं. लेखक-निर्देशक बेकार के फैलाव से बचे होते और फिल्म में कसावट रहती तो तीर निशाने पर लगता. मगर ऐसा नहीं हुआ. इसके बावजूद बधाई दो एक बार देखने लायक है.



मुख्य कलाकारों के साथ बाकी कलाकारों ने अपने अभिनय से फिल्म को पैरों पर खड़ा रहने में मदद की है. जिनमें चम दरांग, सीमा पाहवा और शीबा चड्ढा शामिल हैं. इस फिल्म का 2018 में आई और बेहद कामयाब रही बधाई हो से कोई संबंध नहीं है. यह पूरी तरह से अलग कहानी है, अलग किरदारों और स्टारकास्ट के साथ. उस फिल्म के इंप्रेशन में इसे न देखें. बेहतर संगीत बधाई दो के लिए मददगार हो सकता था, लेकिन यहां ऐसा नहीं है. कोरोना की तीसरी लहर का पीक गुजरने के बाद सिनेमाघरों में आई यह पहली फिल्म है और अगर आप अपने समय के गे-लेस्बियन समुदाय के मन की उलझनों को देखना-समझना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपकी थोड़ी मदद कर सकती है.


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