Bandaa Singh Chaudhary Review: अरशद वारसी कमाल के एक्टर हैं, कुछ दिन पहले उनका एक स्टेटमेंट काफी वायरल हुआ था कि कल्कि में उन्हें प्रभास का किरदार जोकर जैसा लगा. इस फिल्म के रिव्यू से इस स्टेटमेंट का कोई कनेक्शन नहीं है, वो तो फिल्म के इंटरवल में किसी ने मुझे बात याद दिलाई. हालांकि मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखा क्योंकि जोकर भी एंटरटेनिंग होता है और ये फिल्म बिल्कुल एंटरटेनिंग नहीं है. इस फिल्म के एंड में ये बताया गया है कि बंदा सिंह चौधरी जैसी हस्ती का नाम कभी अखबार की सुर्खियां नहीं बना. ये फिल्म अगर वो देखते तो यही सोचते कि इससे अच्छा तो मेरा नाम कभी हेडलाइन्स में ना ही आता. कम से कम मेरे नाम के साथ ये तो ना लिखा जाता कि बंदा सिंह चौधरी एक खराब फिल्म है. 


कहानी
ये कहानी 80 के दशक के पंजाब की है जब पंजाब उग्रवाद की चपेट में था और हिंदुओं को पंजाब से बाहर जाने को कहा जा रहा था. बंदा सिंह चौधरी का परिवार बिहार से पंजाब में आकर बसा था और बंदा ने एक सिख महिला से शादी की थी. ऐसे में बंदा से भी कहा जाता है कि अपना गांव छोड़कर चले जाओ लेकिन बंदा राजी नहीं होता और अकेले ही वो इन उग्रवादियों का सामना करने का फैसला करता है. कौन देता है उसका साथ, और क्या वो कामयाब होता है, वैसे तो ये सवाल है ही नहीं क्योंकि अगर फिल्म बनी है तो जाहिर है कामयाब हुआ ही होगा लेकिन कैसे हुआ, ये कहानी इस फिल्म दिखाई गई है.


कैसी है फिल्म
जिस तरह से मुन्नाभाई एबीबीबीएस फर्जी डॉक्टर था उसी तरह ये एक फर्जी फिल्म लगती है. अरशद वारसी इस कैरेक्टर में फिट लगते ही नहीं, सारे गांववाले अलग लगते हैं औऱ उनमें आपको फिर से मुन्नाभाई का सर्किट ही नजर आता है. पहला हाफ बहुत स्लो है, कहानी मुद्दे पर आती ही नहीं, आपको उम्मीद जगती है कि सेकेंड हाफ में कुछ होगा लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगती है. कोई भी सीन आप पर असर नहीं छोड़ता, फिल्म में इमोशन की कमी लगती है. मट्ठी खाते हुए हाथ में बंदूक लिए अकेले उग्रवादियों का इंतजार कर रहा बंदा का किरदार फनी लगता है. उग्रवादियों के किरदार में ऐसा कोई एक्टर नहीं लिया गया जो खौफ पैदा कर सके. फिल्म से आप इमोशनली नहीं जुड़ पाते. इस तरह की कई कहानियां हमने पहले भी देखी है जहां एक शख्स ने क्रांति की है लेकिन इस कहानी से आप जुड़ ही नहीं पाते. दिलजीत दोसांझ अमर सिंह चमकीला के किरदार को जी गए थे लेकिन यहां आपको ऐसा कुछ महसूस नहीं होता. फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू काफी कम लगती है, अरशद की शर्ट पर लगा खून टोमेटो सॉस लगता है वो भी सस्ती वाली. सिर्फ आपको दो घंटे की इस फिल्म में बंदा सिंह चौधरी के बारे में पता चलता है और यही इस फिल्म की इकलौती अच्छी बात है. 


एक्टिंग
अरशद वारसी कमाल के एक्टर हैं लेकिन इस किरदार में वो सूट नहीं करते. उन्हें देखकर समझ ही नहीं आता कि वो सर्किट हैं अरशद हैं या कुछ और, वो क्यों ऐसे कपड़े पहनते हैं, क्यों चश्मा लगाए रखते हैं, क्यों वो अपने गांववालों जैसे नहीं दिखते. माना उनके पूर्वज बिहार से आए थे लेकिन वो तो यहीं के हैं तो फिर वो ऐसे क्यों हैं. ये फिल्म इन बातों को ठीक से समझा नहीं पाती. मेहर विज अच्छी लगी हैं, उनका काम भी अच्छा है. जीवाशू आहलूवालिया का काम भी अच्छा है, वो पंजाबी लगे हैं. अरशद वारसी की बेटी का किरदार निभाने वाली चाइल्ट एक्ट्रेस ने भी अच्छा काम किया है. इनके अलावा कोई किरदार इम्प्रेस नहीं करता.


डायरेक्शन
अभिषेक सक्सेना का डायरेक्शन काफी खराब है. उन्हें ऐसी हस्ती पर फिल्म बनाने से पहले और रिसर्च करनी चाहिए. इस फिल्म में और इमोशन डालना चाहिए था. जब बंदा उग्रवादियों से लड़ता है तो वो सीन बचकाने लगते हैं. गली में लड़के भी इससे ज्यादा जबरदस्त तरीके से लड़ते हैं, एक अच्छे सब्जेक्ट और अच्छे एक्टर्स को अभिषेक ने वेस्ट कर दिया. 


कुल मिलाकर बंदा सिंह चौधऱी की कहानी जाननी है तो इंटरनेट पर पढ़ लीजिए या इस फिल्म के ओटीटी पर आने का इंतजार कर लीजिए बाकी फैसला आपका है.


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