Bhavai Review: ऐसे दौर में जबकि मनोरंजन की दुनिया लोगों की मुट्ठी में है, गुजरात के खाखर गांव के निवासी उत्साहित होते हैं कि जहां आज तक नाटक नहीं हुआ, वहां ठीक दशहरे से पहले नौटंकी आई है. भंवर नाटक कंपनी की रामलीला गांव में मनोरंजन लाती है लेकिन देखते-देखते यह ड्रामा धर्म और राजनीति से होता हुआ ‘भीड़ के न्याय’ तक जा पहुंचता है. देश-काल से बाहर काल्पनिक लगती कहानी एकाएक हमारे वर्तमान की पोल खोलते हुए त्रासदी में बदल जाती है. लेखक-निर्देशक हार्दिक गज्जर की भवाई रंग-रूप में सांस्कृतिक है लेकिन परतें खुलने पर राजनीतिक-धार्मिक विमर्श में बदल जाती है.
थियेटर में रिलीज हुई दो घंटे से कुछ कम की इस फिल्म का नाम पहले रावण लीला था. ट्रेलर पर विवाद के बाद इसे भवाई किया गया. फिल्म में पता चलता है कि निर्माता-निर्देशक ने आत्म सेंसर का इस्तेमाल करते हुए कहीं-कहीं संवादों पर चुप्पी चिपका दी है. ऐक्टर के होंठ हिलते हैं मगर आवाज नहीं आती. भवाई के केंद्र में ऐसी लव स्टोरी है, जो आस्थावान दर्शकों को ठेस पहुंचा सकती है और कहानी में भी हम यही देखते हैं. यानी कहानी और असली जिंदगी के लोगों में फर्क नहीं. पंडित जी (राजेंद्र गुप्ता) के बेटे राजा राम जोशी (प्रतीक गांधी) को लगता है कि उसके जीवन में अब तक जो नहीं हुआ, वह नौटंकी कंपनी के गांव में आने पर हो सकता है. उसे अभिनय प्रतिभा दिखाने का मौका मिल सकता है. विधि का विधान यह कि राम नाम के हीरो को रावण की भूमिका मिलती है. उस पर विडंबना यह कि मंच के रावण को मंच की सीता उर्फ रानी (ऐंद्रिता राय) से प्यार हो जाता है.
साहित्य-सिनेमा समझाते रहे हैं कि जिंदगी रंगमंच है. हम सब ऊपर वाले के हाथ की डोरियों से बंधे किरदार निभा रहे हैं. मगर मन का क्या करें? मन जिसे राम मान ले, वो राम. जिसे रावण मान ले, वो रावण. ऐसे में नाटक मंडली और गांव वालों के लिए कैसे संभव हो कि मंच पर जिसे रावण बन कर सीता का हरण करते देखा, उसे असल जिंदगी में नायिका के साथ प्रेम प्रसंग में देख लें? आग में घी डालने के लिए विलेन और राजनेता भी कहानी में हैं. कंपनी के बजरंगी (राजेश शर्मा) जैसे लोग, इसके मालिक भंवर (अभिमन्यु सिंह) और लोकल नेता रतन सिंह (गोपाल सिंह) राजा राम और रानी के प्रेम को नजर लगाते हैं. खास तौर पर भंवर कहानी का त्रिकोण तैयार करता है. आगे सिर्फ यही देखना बाकी रह जाता है कि क्या प्रेमी दुनिया से बगावत करके नई इबारत लिखेंगे या पुरातन सोच की लाठियों से ठोक दिए जाएंगे.
भवाई की मुश्किल यह है कि इसमें समय की तस्वीर साफ नहीं है. कहीं यह पुरानी लगने लगती है. कहीं एजेंडे जैसी मालूम पड़ती है. कुछ संवाद संस्कृति, धर्म और दर्शक की आस्था पर अंगुली उठाते हैं. लेखक-निर्देशक हार्दिक गज्जर पूरी फिल्म में इस संकोच से उबर नहीं सके कि जब राजा राम और रानी को मंच पर रावण और सीता दिखा रहे हैं तो उनकी प्रेम कहानी को शिद्दत से कैसे दिखाएं. ऐसे में लव स्टोरी निखर नहीं पाती. अंततः फिल्म अपने मूल आइडिये के बाहर शिथिल पड़ जाती है. पटकथा की बुनावट भी इसमें दिलचस्पी पैदा नहीं कर पाती. राजा राम जोशी की कहानी मुख्य रूप से यह सवाल उठाती है कि राम-रावण की कहानी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी घुट्टी में पिलाने वाले समाज में आज खलनायक कौन है और नायक कौन? भवाई का एक संवाद हैः इस युग में सभी रावण हैं. मतलब मर्यादा, आदर्श और रघुकुल रीति केवल किताबों में रह गए हैं.
तमाम सवाल उठाने के बावजूद फिल्म नया तर्क नहीं गढ़ती. सवालों के स्पष्ट जवाब देने के बजाय उन्हें छूते हुए बढ़ जाती है. इसके संवाद और बेहतर हो सकते थे. फिल्म की मेकिंग और एक्टिंग पर मंचीय प्रभाव है. इसी का नतीजा है कि हॉल में आप मजा नहीं ले पाते. प्रतीक गांधी ने ओटीटी पर स्कैम 1992 में असर छोड़ा था परंतु बड़े पर्दे पर जादू नहीं जगाते. किरदार की जरूरी सादगी के बावजूद उनमें हीरो वाली बात नहीं दिखती. यह अवश्य है कि वह रावण की भूमिका में जमते हैं. हिंदी फिल्मों में यह प्रतीक गांधी का डेब्यू है. ऐंद्रिता राय कुछ दृश्यों में सुंदर दिखी हैं लेकिन बाकी बेअसर हैं. मुख्य किरदारों के इर्द-गिर्द राजेंद्र गुप्ता, अंकुर भाटिया, अंकुर विकल, अभिमन्यु सिंह, राजेश शर्मा, फ्लोरा सैनी और गोपाल के. सिंह की भूमिकाएं कहानी का बड़ा सहारा बनती हैं. फिल्म में गुजरात के लोक संगीत की छाप है लेकिन याद रह जाने जैसा कुछ विशेष नहीं है. चितरंजन दास का कैमरा वर्क जरूर कुछ दृश्यों को आकर्षक बनाता है.
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