Bunty Aur Babli 2 Review: बंटी और बबली 2 बताती है कि चोरों को भी अपने ब्रांड की चिंता होती है. चोर चोरी से जाते हैं मगर हेरा-फेरी से नहीं. आपने बंटी और बबली (2005) देखी थी तो 16 साल बाद आ रही आगे की कहानी में भी आपकी दिलचस्पी होगी. इतने बरसों में दुनिया बदल गई है. बंटी-बबली भी बदल गए हैं. लेकिन इनकी कहानी और इनके अंदाज-ए-बयां में कुछ नहीं बदला क्योंकि बॉलीवुड के कथित दिग्गजों के पास बदले वक्त की कहानियों का सूखा है. वे एसी कमरों और लग्जरी कारों में बैठे सिर्फ आस-पास की वह ठंडी दुनिया देख रहे हैं, जहां कहानियों में फफूंद लग गई है. बंटी और बबली की दोनों कहानियों को समानांतर रखेंगे तो पहली ही बेहतर मालूम पड़ेगी. उसमें रिपीट वैल्यू है.


निर्माता आदित्य चोपड़ा की बंटी और बबली 2 पुरानी बोतल में नई शराब है. यह ब्रांड के नाम की बिक्री का मामला है. फिल्म में एक बच्चे की मां पम्मी त्रिवेदी (रानी मुखर्जी) अपने पति राकेश (सैफ अली खान) के सामने बार-बार चिंता जाहिर करती है कि चोर बाजार में कोई उनके ब्रांड नेम बंटी और बबली का इस्तेमाल कर रहा है. कुणाल सिंह (सिद्धांत चतुर्वेदी) और सोनिया कपूर (शरवरी वाघ) अब बंटी-बबली के नाम से लोगों को ठग रहे हैं. पुलिस इंस्पेक्टर जटायु सिंह (पंकज त्रिपाठी) को लगता है कि पुराने चोर फिर सक्रिय हुए हैं. मगर सच सामने आता है तो पम्मी और राकेश से जटायु सिंह कहते हैं, अपनी जान बचानी है तो कुणाल और सोनिया को पकड़ कर लाएं.


यहां से फिल्म चूहा-बिल्ली की दौड़ बनती है, लेकिन विश्वास कीजिए कि टॉम एंड जैरी का मुकाबला नहीं कर पाती. धनपतियों को वर्जिन आइलैंड नाम के फर्जी देश में रंगीन मौज-मस्ती का ख्वाब दिखाने और गंगा किनारे बसे शहर के मेयर (यशपाल शर्मा) को पवित्र नदी की सफाई का ठेका देने के नाम पर ठगने वाले नए बंटी-बबली का जब पुराने वालों से सामना होता है तो कोई चिंगारी नहीं फूटती. बहन जी द्वारा अपने बर्थडे पर लोगों से चंदे के पर नाम लिए काले धन और सरकारी गोदामों से लूटे गेहूं को ब्लैक मार्केट में बेचने की बंटी-बबली की कलाबाजी कहानी में सस्ती पैरोडी लगती है.


इसके बाद लेखक-निर्देशक को लगता है कि इंडिया में बहुत शूट हो गया, थोड़ा विदेश में भी शूट कर लें, तो कहानी दुबई जाती है क्योंकि पुराने बंटी-बबली नए वालों को रंगे हाथ पकड़ने का जाल बिछाते हैं. क्या वे सफल होंगे, क्या होगा अंतिम मुकाबले में, क्या बंटी और बबली ब्रांड बच पाएगा. इन सवालों के जवाब मिलने या न मिलने से कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता. फिल्म का पहला हाफ भले थोड़ा संभला हो मगर दूसरे में सुस्ती पसरी है. लेखक-निर्देशक की गुदगुदाने की कोशिशें बेकार जाती हैं.


रानी-सैफ की यह फिल्म अभिषेक-रानी की फिल्म के मुकाबले हर स्तर पर कमजोर है. लूट और ठगी की फिल्मों में नेकी कर दरिया में डाल फार्मूला खूब चलता है. यहां भी अमीरों को लूट कर गरीबों के बैंक अकाउंट में पैसे डालने का ड्रामा है. यह ऐसे प्रचार का दौर है, जिसमें बताया जा रहा है कि बेरोजगार और गरीब बैंकों में आ रहे मुफ्त के धन से निहाल हो रहे हैं. लेकिन जरूरी सवालों की बात कहीं नहीं है. रानी अब बबली नहीं लगतीं और सैफ को लंबे अनुभवों से सीखते हुए उन नए बैनरों, नए निर्माता-निर्देशकों के साथ काम करना चाहिए जो सिनेमा की दिशा बदलने की कोशिश में हैं. पंकज त्रिपाठी बढ़िया है लेकिन पहली फिल्म वाले दशरथ सिंह (अमिताभ बच्चन) बेजोड़ हैं. वह यहां खूब याद आते हैं. बंटी और बबली की सफलता में बढ़िया गीत-संगीत का बड़ा योगदान था. वहां गुलजार के शब्द थे. यहां गीत-संगीत रेत कि तरह सिर पर गिरता है.


यशराज बैनर की कुछ फिल्मों में सहायक के रूप में जुड़े रहे वरुण वी. शर्मा को बतौर निर्देशक यहां ब्रेक मिला है. लेकिन वह कुछ ऐसा नहीं कर पाते कि छाप अलग दिखे. गली बॉय वाले सिद्धांत चतुर्वेदी ऐक्टिंग के बजाय स्टाइल में ज्यादा हैं. एक समय यशराज से बतौर हीरोइन लॉन्च होना बड़ी बात थी. शरवरी वाघ के डेब्यू में कोई धमक नहीं है. सिद्धांत-शरवरी के रोमांस में भी दम नहीं है. बाजार में ब्रांड का रसूख बनाए रखना कठिन काम है. आदित्य चोपड़ा ने जोखिम उठाया मगर बंटी-बबली की ब्रांड वैल्यू बचाने में नाकाम रहे. सिनेमाघरों में फिल्म देखना आज भी महंगा सौदा है. टिकटों की दर पुरानी है, खर्चे वही हैं. एंटरटेनमेंट में निवेश करना जोखिमों के अधीन है. याद रखें, अब ओटीटी का विकल्प खुला है.


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