Chandigarh Kare Aashiqui Review In Hindi: चंडीगढ़ करे आशिकी आम फिल्मों से हट कर बात करती है. लेकिन क्या यह नॉर्मल है, इस सवाल का जवाब आपके नजरिये पर निर्भर है. फिल्म में नायक अपनी ट्रांस-गर्ल नायिका से कहता है, ‘नॉर्मल क्या होता है? नॉर्मल नजरिया होता है.’ निर्देशक अभिषेक कपूर की सिनेमाघरों में रिलीज हुई यह फिल्म मुद्दे पर आने में ज्यादा वक्त नहीं लगाती. यहां हीरो (आयुष्मान खुराना) चंडीगढ़ में बॉडी बिल्डर-वेटलिफ्टर है. वह अपने जिम की चेन खोलना चाहता है लेकिन इसके लिए उसे चैंपियन बनना होगा. तब ब्रांड वेल्यू बढ़ेगी और स्पॉन्सर मिलेंगे. इससे पहले कि वह ऐसा कर सके, जिम के दूसरे कोने में जुंबा क्लासेस लेने के लिए मानवी (वाणी कपूर) आ जाती है. उसकी क्लास चल पड़ती है और हीरो भी उसके प्यार में डूब जाता है. प्यार सीधे फिजिकल होता है और जब बात जिंदगी में सीरियस होने की चलती है तो मानवी उसे बताती है कि वह पैदाइशी लड़का थी. उसने ऑपरेशन करके अपना सेक्स चेंज किया है. हिंदी मीडियम में पढ़े हीरो के लिए यह बात बहुत भयानक है. उसके जीवन में उथल-पुथल मच जाती है. अब वह क्या करे. प्यार में आगे बढ़े या मानवी से दूर हो जाए. क्या यह सब इतना आसान है.


आयुष्मान खुराना और वाणी कपूर ने अपने किरदारों को बढ़िया ढंग से पर्दे पर उतारा है. बॉडी बिल्डर-वेटलिफ्टर के रूप में आयुष्मान की बॉडी लैंग्वेज जबर्दस्त है लेकिन उनका अंदाज थोड़ा और देसी होने की डिमांड करता है. वहीं पर्दे पर मर्द-चेहरे वाली वाणी एक अंग्रेजीदां युवती के रोल में अच्छी लगती हैं. उनके चेहरे से मासूमियत गायब है. उन्होंने यह फिल्म करके करिअर में बड़ा रिस्क लिया है. जहां तक कहानी की बात है तो इसमें रोमांस कम और जिस्मानी संबंधों की बात अधिक है. चंडीगढ़ करे आशिकी बार-बार स्थापित करती है कि ट्रांस-पर्सन होना नॉर्मल है. जैसे अभी तक यह बात होती आई है कि लड़का हो या लड़की, क्या फर्क पड़ता है. फिल्म इसमें जोड़ती है कि ट्रांस होने से क्या फर्क पड़ता है.




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तय है कि फिल्म में फर्क नहीं पड़ता और दर्शक भी उत्सुकतावश देखें लेकिन आज भी लड़का-लड़की में भेद करने वाले समाज में जरूर ट्रांस होने से फर्क पड़ता. खुद फिल्म की कहानी में यह बात मजबूती से सामने आती है. मानवी को देखते ही हीरो की बहनें उसकी खूबसूरती पर फिदा हो जाती हैं, परंतु जैसे ही पता चलता है कि वह ट्रांस-गर्ल है उसके प्रति परिवार का नजरिया बदल जाता है. इसी तरह मानसी की मां और अन्य रिश्तेदारों की तस्वीर सामने आती है. कोई उसे नए रूप में स्वीकार करने को तैयार है. अभिषेक कपूर ने पर्दे पर एनिमेशन के द्वारा सेक्स चेंज ऑपरेशन को भी समझाया है.




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फिल्म पहले हिस्से में जहां धीमी गति से चलती है, वहीं दूसरे में रफ्तार पकड़ने के बावजूद लंबे दृश्यों में उलझ जाती है. चंडीगढ़ करे आशिकी की स्क्रिप्ट पर बेहतर ढंग से काम करने की जरूरत थी. इसके संवाद सीधे-सटीक हैं और उन पर गहरा पंजाबी असर है. कहानी में रोमांस गायब है. टेंशन ज्यादा है. लेखक-निर्देशक ने बातों को हल्के-फुल्के अंदाज में कहने की कोशिश जरूर की, लेकिन हल्के-फुल्के पल यहां गायब हैं. कॉमिक टोन कभी-कभी उभरती है और पल भर में खत्म हो जाती है. निर्देशक ने उन जगहों पर कॉमेडी पैदा करने की कोशिश है, जहां नायिका को उसके ट्रांस रूप में स्वीकार न करने की बातें हैं. 117 मिनट की फिल्म एलजीबीटी समुदाय की सीधी वकालत नहीं करती लेकिन उसके हक में खड़ी होती है.




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बदलते हुए समय में कई बातों को स्वीकार करना आसान नहीं होता और बॉलीवुड फिल्में लगातार एलजीबीटी समुदाय को सामान्य लोगों की तरह स्थापित करने की कोशिशें कर रही हैं. वह दौर गुजर गया है जब ये किरदार सिर्फ हंसी के पात्र होते थे. अभिषेक कपूर फिल्म के माध्यम से जितना एंटरटेन नहीं करते, उससे अधिक इस समाज के बारे में लोगों को शिक्षित और संवेदनशील बनाने की कोशिश करते हैं. फिल्म मनोरंजन के समान्तर किसी नीति-शिक्षा के पाठ की तरह चलती है. फिल्म का गीत-संगीत औसत है. पंजाब और उससे जुड़े इलाकों में भले ही लोग इसे सुनें-गुनगुनाएं लेकिन बाकी से इसका कनेक्ट नहीं बैठता. फिल्म देख कर इसके टाइटल को समझ पाना मुश्किल है क्योंकि यह चंडीगढ़ के ट्रांस-गर्ल को दिल दे बैठने वाले एक ही मुंडे की कहानी है. बाकी शहर भर की आशिकी का इससे क्या कनेक्ट है, निर्देशक समझा नहीं पाते। चंडीगढ़ करे आशिकी कोशिश अच्छी है लेकिन बात कहने का अंदाज औसत और टोटल फिल्मी है.


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